बुधवार, 23 नवंबर 2022

हम सभी को नारीवादी होना चाहिये : पुस्तक समीक्षा

 

इस वर्ष कथित नारीवादी सोच रखने वाली महिलाओं के कुतर्कों से परेशान होकर मैंने एक पुस्तक पढ़ने का निर्णय लिया और इसे भविष्य में क्रय करने की इच्छा से एमज़ोन के कार्ट में जोड़ लिया। इसी वर्ष सितम्बर में इसे क्रय भी कर लिया। इस पुस्तक का शीर्षक "We Should All Be Feminists" (हम सभी को नारीवादी होना चाहिये) है जिसे चिमामाण्डा नगोज़ी अदिची ने लिखा है। जब पुस्तक मेरे हाथ में आयी तो बहुत बुरा लगा क्योंकि यह आकार में बहुत छोटी और पतली थी जिसमें कुल 51 पृष्ठ हैं और इसका आकार ए4 पेपर के चौथे हिस्से का है। इसमें एक सकारात्मक पक्ष यह था कि इसे पढ़ने में अधिक समय नहीं लगेगा। इसकी लेखिका नाईजीरिया की हैं और यह पुस्तक उनके एक टेड-टॉक से लिखी गयी है। वर्ष 2012 में लेखिका ने टेडेक्स की बातचीत में इस विषय पर बोला था जिसे बाद में फोर्थ स्टेट ने वर्ष 2014 में प्रकाशित किया। इस पुस्तक में नारीवाद को परिभाषित किया गया है। मैं इस पुस्तक को पढ़ते हुये इसपर मेरे विचार प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ।
पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर कुछ वृत बने हुये हैं जिनको आधा काला और आधा सफेद रखा गया है। शायद इन्हें समानता प्रदर्शित करने के लिए दर्शाया गया है लेकिन यदि इनमें कोई यह कहे कि श्वेत को बायीं एवं काले को दायीं तरफ क्यों रखा गया है? श्वेत भी पूरी तरह श्वेत नहीं है, वो हलका पीलापन लिये हुये है। इसी तरह लेखक का नाम भी इस हल्के पीले रंग में लिखा है और उसके नीचे काले रंग में पुस्तक का शीर्षक है। पुस्तक के पहले पृष्ठ पर केवल परिचय नाम से शीर्षक रखा गया है और बाकी पहले दोनों पृष्ठ इस नाम पर खाली रखे गये हैं। पृष्ठ संख्या 3 पर निम्बंध आरम्भ होता है। पृष्ठ संख्या 3 और 4 पर लेखिका ने लघुतम रूप में यह बताया है कि उन्होंने यह भाषण क्यों और कौनसी परिस्थितियों में दिया था और इस पुस्तक में उसका संशोधित रूप लिखा हुआ है। अगले दो पृष्ठ फिर खाली हैं केवल एक जगह शुरूआत में पुस्तक का शीर्षक लिखा हुआ है। पुस्तक की वास्तविक शुरूआत पृष्ठ संख्या 7 से आरम्भ होती है।

लेखिका ने इसकी शुरुआत अपने एक दोस्त ओकोलोमा से आरम्भ की है जो वर्ष 2005 में एक हवाई दुर्घटना में मर चुके हैं। लेखिका अपने इन भावों को शब्दों में नहीं लिख पाती हैं लेकिन अपने दुख को प्रकट कर रही हैं और उनके अनुसार उनका यह दोस्त पहला व्यक्ति था जिसने उन्हें फेमिनिस्ट अर्थात नारीवदी कहा। वो जब 14 वर्ष की थी तब उनके दोस्त ने एक दिन आपसी चर्चा/बहस के दौरान उन्हें कटाक्ष करते हुये नारीवादी कहा था। लेखिका को इस शब्द का अर्थ ज्ञात नहीं था लेकिन उन्होंने यह प्रत्यक्ष रूप में दिखाने के स्थान पर बाद में शब्दकोश में खोजना उचित समझा। इसके बाद लेखिका वर्ष 2003 की एक घटना का वर्णन कर रही हैं जब वो अपनी एक पुस्तक का प्रचार प्रसार कर रहीं थी तब एक पत्रकार ने उन्हें अनचाही सलाह दे दी। यहाँ लेखिका लिख रही हैं कि नाईजीरिया में ऐसे सलाह देने वाले बहुतायत में पाये जाते हैं। इसके बाद लेखिका कुछ रोचक बातें लिखती हैं। उनके अनुसार पत्रकार ने उन्हें कहा कि उनकी पुस्तक के बाद लोग उन्हें नारीवादी कहेंगे लेकिन उन्हें स्वयं को कभी नारीवादी नहीं कहना चाहिए क्योंकि नारीवादी महिलाओं को पति नहीं मिलते और इस कारण से वो दुखी रहती हैं। इसके बाद लेखिका ने स्वयं को खुश नारीवादी कहने का निर्णय लिया। इसके बाद उनका सामना नाईजीरिया की एक अकादमिक से जुड़ी महिला से हुआ जिनके अनुसार उन्हें नारीवादी पुस्तकें नहीं लिखनी चाहियें क्योंकि यह पाश्चात्य विचार है और अफ्रीकी लोग नारीवादी नहीं होते। इसके बाद लेखिका ने स्वयं को खुश अफ्रीकी नारीवादी कहने का निर्णय लिया। इसके पश्चात् उनके किसी दोस्त ने उन्हें बताया कि नारीवादी महिलायें पुरुषों से नफरत करती हैं जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने स्वयं को खुश रहने वाली अफ्रीकी नारीवादी जो पुरुषों से नफरत नहीं करती कहना आरम्भ कर दिया। इस तरह आगे बढ़ते हुये उन्होंने अपने आप को इस तरह परिभाषित कर लिया: खुश रहने वाली अफ्रीकी नारीवादी जो पुरुषों से नफरत नहीं करती, जो होठलाली (होठ को चमक लाने वाला) लगाती हैं, जो स्वयं के लिए ऊँची एडी की चप्पल/जुते पहनती हैं और यह पुरुषों के लिए नहीं करती। इस तरह उन्होंने इस शब्द की कृत्रिमता को दर्शया है कि लोग नारीवादी को इतना भारी मान लेते हैं जिसमें नकारात्मक भारीपन भरा हुआ है: वो पुरुषों से नफरत करती हैं, वो चोली से नफरत करती हैं, वो अफ्रीकी संस्कृति से नफरत करती हैं, वो ऐसा सोचती हैं कि वो हमेशा प्रभावी होती हैं, वो कभी शृंगार नहीं करती, वो कभी शरीर के बाल नहीं हटाती, वो हमेशा गुस्से में रहती हैं, वो हास्यवृत्ति नहीं रखती, वो गंधनाशकों का प्रयोग नहीं करती।

इसके बाद लेखिका अपनी एक कहानी लिखती हैं जिसके अनुसार जब वो प्राथमिक विद्यालय में पढ़ती थी तब शिक्षिका ने एक परख लेने का निर्णय लिया और बताया कि जो इस परख में शीर्ष पर होगा उसे कक्षा का मॉनीटर बनाया जायेगा। लेखिका इससे काफी उत्सुक थी क्योंकि मॉनीटर के पास बहुत सारे अधिकार होते हैं, वो पीटाई करने के लिए बेंत नहीं रख सकता लेकिन रुतबा कम भी नहीं होता। इस तरह उन्होंने अच्छी मेहनत करके कक्षा में शीर्ष अंक प्राप्त किये। लेकिन उन्हें तब आश्चर्य हुआ जब उनकी शिक्षक ने बताया कि वो पहले बताना भूल गयी थी की मॉनीटर केवल लड़का हो सकता है अतः दूसरे स्थान पर रहने वाला लड़का मॉनीटर बन गया। शिक्षिका ने शायद यह तय मान लिया था कि कक्षा में शीर्ष पर तो लड़का ही रहेगा। वो लड़का मॉनीटर बनने में कोई रुचि नहीं रखता था और बहुत ही प्यारा था। लेकिन लेखिका ऐसी रुचि रखते हुये भी ऐसा नहीं कर पायी। लेखिका के अनुसार ऐसी परम्परायें लगातार बनी रहने पर हम उसे स्वाभाविक मान लेते हैं और इसको बदलने के बारे में सोचते भी नहीं हैं।

इसके बाद लेखिका अपने एक और दोस्त की कहानी लिखती हैं जिनका नाम लुई/लुईस है और उसके साथ वो कई बार बातें करती थी और वो महिलाओं के पास कम जिम्मेदारियाँ होने के कारण उनका जीवन सरल होने की बात कहता था। वो प्रगतिशील विचारों वाला व्यक्ति है इसके साथ वो नाईजीरिया के बड़े नगर लेगोस की चर्चा करती हैं। लेखिका के अनुसार वहाँ पर अपनी कार खड़ी करने के लिए जगह नहीं मिलती लेकिन कुछ लोग स्वयंसेवक के रूप में लोगों की इसमें सहायता करते हैं और लोगों द्वारा उपहार के रूप में दिये जाने वाले धन से उनकी आमदनी होती है। इसमें एक दिन का किस्स लिखती हैं जिसके अनुसार उन्होंने एक दिन ऐसे स्थान से छोड़ते समय वहाँ सहायता करने वाले व्यक्ति को कुछ धन बख्शीश के रूप में देती है और वो व्यक्ति इसके बदले लुई को धन्यवाद देता है। वो दोनों इस धन्यवाद को समझ नहीं पाते हैं लेकिन बाद में लेखिका ने यह समझाया कि उस व्यक्ति के अनुसार लेखिका के पास जो धन है वो पूरा लुई ने उसे दिया है।

लेखिका की अगली कहानी पुरुष और महिला में भिन्नता को समझाने से हुआ है जिसके अनुसार महिला बच्चों को जन्म दे सकती है लेकिन पुरुष नहीं लेकिन इसके विपरीत पुरुष शरीर से अधिक ताकतवर होता है लेकिन विश्व में महिलाओं की संख्या पुरूषों से अधिक होती है। इसके साथ ही वो केन्या की नोबेल पुरस्कार विजेता वंगारी मथाई के कथन के बारे में बताती हैं जिसके अनुसार ज्यों ज्यों ताकत के पदों में उपर जावोगे, महिलाओं का अनुपात कम होता जायेगा। उनके अनुसार आज से हज़ार वर्ष पहले पुरुषों का शासन होना समझ में आता है क्योंकि तब शारीरिक ताकत से ही अधिकार प्राप्त होते थे लेकिन आज का विश्व एकदम अलग है। आज ताकत के स्थान पर बुद्धिमता आधारित विश्व है और इसके लिए पुरुष एवं महिलाओं के हार्मोन में अन्तर नहीं होता। इसमें दोनों एक जैसे हैं लेकिन सत्ता के केन्द्र में आज भी बदलाव नहीं हुये हैं।

लेखिका ने नाईजीरिया में एक होटेल का किस्सा लिखा है जिसमें उनसे पूछा जाता है कि वो किसके मकान में जाना चाहती हैं? वो अपना पहचान पत्र दिखाकर अकेली नहीं जा सकती क्योंकि वहाँ अकेली महिला को सेक्स-वर्कर समझा जाता है। अकेली महिला किसी अच्छे कल्ब या मधुशाला में नहीं जा सकती। जब भी वो किसी भोजनालय में जाती हैं तो अभिवादन उनके साथ होने वाले पुरुष का होता है। लेखिका को यह सौतेला व्यवहार बुरा लगता है लेकिन वो जानती हैं कि यह उन व्यक्तियों की गलती नहीं है क्योंकि वो उसी समाज में पले बढ़े हैं। वो लैंगिक भेदभाव के प्रति अपने गुस्से को भी लिखती हैं जिसके अनुसार उन्हें यह देखकर गुस्सा आता है कि महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव होता है। उनके एक परिचित ने सलाह दी कि गुस्सा महिलाओं को शोभा नहीं देता। उन्होंने एक किस्सा अमेरिका का भी लिखा है जिसमें उनकी दोस्त का एक पुरुष कर्मचारी के साथ व्यवहार और एक पुरुष की जालसाजी को सामने लाने का किस्सा लिखा है जिसमें जालसाजी वाला व्यक्ति उस महिला की शिकायत उपर के अधिकारियों को कर देता है जिसमें महिला होने के स्वभाव का तड़का लगा हो। एक कहानी उन्होंने अपनी अन्य अमेरिकी महिला दोस्त की लिखी है जो विज्ञापन सम्बंधित कार्य करती है और उसका बोस उसकी टिप्पणियों को अनसुना कर देता है और वह बात ही किसी पुरुष के कहने पर वो सुनकर मान लेता है। उसकी दोस्त बहुत रोती है और अपने आक्रोस को अपने अन्दर ही उबलने देती है। यहाँ इन कहानियों में मुझे कहीं भी महिला होना प्रतीत नहीं हुआ क्योंकि मैंने स्वयं अपने जीवन में ऐसा भेदभाव स्थानीयता और अन्य आधारों पर अनुभव किया है जबकि मैं पुरुष हूँ। मुझे यहाँ ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे लेखिका सभी परिस्थितियों को महिला चेहरे से जोड़कर उनको व्यापक रूप में दिखाना चाहती है जबकि इसकी व्यापकता कहीं और छुपी हुई है।

आगे लेखिका ने इसका वर्णन किया है कि बाज़ार में ऐसे सामान बहुतायत में पाये जाते हैं जो एक महिला किसी पुरुष को कैसे खुश रखे इसका विवरण होता है लेकिन इसके विपरीत कुछ भी नहीं मिलता। लड़कियों को बचपन से सिखाया जाता है कि लड़कों को कैसे सहन करते हैं लेकिन लड़कों को ऐसा नहीं सिखाया जाता। मेरा विचार यहाँ पुनः विरोधाभाषी है। हाँ मुझे घर पर ऐसा नहीं सिखाया गया कि लड़कियों से कैसे बात करनी है लेकिन किसी भी मामले में ऐसे भेदभाव उस समाज में महसूस नहीं किये जाते जहाँ से मैं हूँ। बाज़ार में उपलब्ध सामान की बात की गयी है तो उसके स्थान पर यह भी बहुतायत में मिलता है कि एक लड़की अथवा महिला को कैसे खुश रखा जाता है। हालांकि इस मामले में दोनों तरह की कहानियाँ और सामान मुझे अर्थहीन लगते हैं। आगे लेखिका ने अपनी एक छात्रा का वाक्य लिखा है जिसके अनुसार वो उन्हें पुछ्ती है कि उसके मित्र ने उसे नारीवादी बातें न सुनने के लिए कहा है अन्यथा उसका वैवाहिक जीवन प्रभावित होगा। यहाँ पर लेखिका एक अलग दुनिया की बात करती हैं और कहती हैं कि हमें (पूरे विश्व में) अपने लड़कों को अलग और लड़कियों को अलग तरिके से पालन-पोषण करने की आवश्यकता है। मुझे लगता है लेखिका यहाँ पर अपने विचारों के अनुरूप वर्तमान से अलग की बात कर रही हैं लेकिन मुझे लगता है कि लड़के और लड़कियाँ दोनों का समान पृष्ठभूमि में पालन पोषण होना चाहिए।

लेखिका ने बाहर होने वाले खर्चे में पुरुषों के भुगतान पर भी कहा है कि वहाँ भी लड़के और लड़की को अपना-अपने भाग का भुगतान करना चाहिये या जिसके पास अधिक है उसे भुगतान करना चाहिए। मैं यहाँ लेखिका से सहमत हूँ और जीवन में हमेशा ऐसा ही किया है। लेखिका ने आगे यह भी लिखा है कि महिलायें हमेशा अपने आप को पुरुषों से कम ऊँचाई पर रखती हैं और उन्हें बचपन से यह सिखाया जाता है कि जीवन में आगे बढ़ो, सबकुछ करो लेकिन बहुत अधिक सफलता प्राप्त मत करो अन्यथा आप पुरुषों को डराने लगोगी। आप यदि घर में पुरुष पर हावी होती हो तो भी लोगों के सामने ऐसा मत करना अन्यथा वो प्रभावहीन हो जायेगा। लेखिका यहाँ पुछती हैं कि ऐसा क्यों होता है? पुरूष और महिला में किसी को एक दूसरे पर अधिक प्रभावशाली क्यों होना है? नाईजीरिया के एक परिचित ने पूछा कि यदि कोई व्यक्ति उनके द्वारा धमकाया हुआ महसूस करे तो वो लिखती हैं कि उन्हें बिलकुल भी चिन्ता नहीं होगी क्योंकि उनके द्वारा जिस व्यक्ति को धमकाया हुआ महसूस होगा वो उनके जैसा नहीं होगा। आगे लेखिका कहती हैं कि लड़कियों को ऐसा सिखाया जाता है कि उन्हें विवाह करना है और बाद में उस वैवाहिक जीवन में उन्हें प्यार, खुशी और साथ मिलेगा। लेकिन यह केवल लड़कियों को ही क्यों सिखाया जाता है, लड़कों को क्यों नहीं? आगे वो नाईजीरिया के कुछ उदाहरण लिखती हैं जिसमें पहले के अनुसार एक महिला अपना घर बेचना चाहती हैं क्योंकि वो उस व्यक्ति को भयभीत नहीं करना चाहती जो उनके साथ विवाह करना चाहता है। दूसरे उदाहरण में वो एक अविवाहित महिला के बारे में लिखती हैं जो सम्मेलन में इसलिए विवाहित महिला जैसा शृंगार करके जाती है क्योंकि इससे उसके साथी उसे सम्मान देंगे। लेखिका उस महिला के शृंगार का विरोध नहीं कर रहीं बल्कि वो यह पूछ रही हैं कि ऐसे शृंगार नहीं करने पर सम्मान क्यों नहीं मिलेगा? महिलाओं पर समाज, परिवार और रिश्तेदारों का विवाह करने के लिए इतना दवाब होता है कि वो कई बार भयानक फैसले ले लेती हैं। आगे विवाह के बारे में पुरुष पर कोई दवाब न होने की बात कही गयी है। इसके बाद लेखिका ने स्पष्ट करना चाहा है कि यहाँ सामाजिक तौर पर भागीदारी की बात नहीं होती बल्कि स्वामित्व की बात होती है। हम यह तो अपेक्षा करते हैं कि महिला पुरुष का सम्मान करे लेकिन पुरुष से महिला की तरफ ऐसा कुछ नहीं समझते। सभी पुरुष और महिलायें इसपर कहेंगे कि "यह तो मैंने मेरे वैवाहिक जीवन की शान्ति के लिए किया।" आगे कुछ वाक्य लिखे हैं जिनके साथ यह प्रयास किया गया है जो प्रदर्शित करता हो कि महिला ही वैवाहिक जीवन के लिए अधिक समझौते करती है। लेखिका आगे लिखती हैं कि हम लड़कों का ध्यान नहीं रखते कि कितनी महिला-मित्र/प्रेमिकायें रखता है लेकिन लड़कियों को पुरुष-मित्र/प्रेमी की अनुमति नहीं देते और एक आयु के बाद अपेक्षा करते हैं कि वो एक अच्छे पुरुष के साथ विवाह कर ले। हम महिला के कौमार्य की बात करते हैं जबकि पुरुष के कौमार्य की नहीं करते जबकि कौमार्य दोनों का एक साथ ही चला जाता है। नाईजीरिया में ही एक विश्वविद्यालय में एक लड़की के साथ कुछ लड़कों ने बलात्कार किया तो सबने इसे गलत बताया लेकिन साथ में सवाल भी रखा कि वो लड़की चार लड़कों के साथ कमरे में क्या कर रही थी? लेखिका ने आगे लड़कियों को जन्म से यह प्रदर्शित करने की बात समझा रही हैं जिनमें उन्हें दिखाया जाता है कि लड़की के रूप में जन्म लेना अपराध है और इसके लिए उन्हें विशेष रूप से शरीर को ढ़ककर रखना होगा। वो नाईजीरिया की एक महिला के बारे में लिखती हैं जो गृहकार्यों में रुचि होने का दिखावा करती है और उसका विवाह होने के बाद ससुराल वालों की तरफ से इसकी शिकायत आती है कि वो बदल गयी है क्योंकि वो तो पहले भी दिखावा ही कर रही थी। यहाँ मैं लेखिका के एकतरफा उदाहरणों से इतना ही कह सकता हूँ कि कुछ हद तक कुछ उदाहरण सही हैं लेकिन कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो वास्तविकता में बहुत छोटे स्तर पर होते होंगे जिन्हें बड़ा करके दिखाया गया है क्योंकि मैंने तो इसका विपरीत भी देखा है और ऐसे बहुत लोगों को जानता हूँ जो एक सफल महिला को पाने के लिए अपना सबकुछ दाँव पर लगा देते हैं। अतः सही ढ़ंग से समझा जाये तो यह तर्क कुछ ठीक नहीं बैठता।

लेखिका ने आगे के भाग में भोजन बनाने पर लिखा है कि विश्व में ज्यादातर महिलायें घर पर खाना बनाती हैं जबकि ऐसा जीन (जनन कोशिकायें) में नहीं होता होगा। जबतक 'शेफ' के रूप में बड़ी संख्या में पुरुष प्रसिद्ध नहीं हो गये तब तक लेखिका ऐसा मानती थी कि यह जीन के कारण है कि महिलायें ही खाना बनाने और सफाई में अच्छी होती हैं। लेखिका यह भी कहती हैं कि उनकी दादी के समय से लेखिका के समय तक आते हुये इसमें बहुत अधिक बदलाव हो गये हैं। यहाँ समझने लायक यह बात है कि वो सभी बदलाव उसके दादाजी के काल से भी जोड़े जा सकते हैं। मशीनीकरण बढ़ गया है और इसके कारण जो काम महिला और पुरुष के मध्य बांटकर रखे जाते थे उनमें से बहुत काम मशीनों ने ले लिये अतः बदलाव तो होना ही था। इसको नारीवाद से कैसे जोड़ा जा सकता है? आगे लेखिका ने दो उदाहरण दिये हैं जिनमें पहले में भाई-बहन का उदाहरण दिया है कि भाई को जब भी भूख लगती है तब उसके माता-पिता बहन को कुछ बनाकर लाने को कहते हैं जबकि यह काम दोनों को सिखाया जाना चाहिये था। मैं लेखिका के इस कथन से सहमत हूँ कि ऐसा जिस घर में होता है, नहीं होना चाहिए। इसके बाद दूसरे उदाहरण में वो समान डिग्रीधारी पति-पत्नी की बात की है और कहा है कि घर पर खाना हमेशा पत्नी ही बनाती थी। मैं यहाँ लेखिका अथवा उनके समर्थकों से पूछना चाहता हूँ कि ऐसा कहाँ होता है? महिलायें हमेशा स्वयं से बेहतर की खोज में स्वयं को खाना बनाने से जोड़ लेती हैं इसमें पुरुष का तो कोई दोष नहीं है। जो महिलायें स्वयं से कमजोर पति खोजती हैं वो इसका उल्टा भी करती हैं।

लेखिका अपने स्नातक के समय के बारे में लिखती हैं कि उन्हें एक दिन कुछ प्रस्तुति देनी थी और उन्हें इस बात की चिन्ता हो रही थी कि वो क्या पहने जिससे उन्हें गंभीरता से लिया जाये जबकि उन्होंने अपना विषय अच्छे से तैयार किया था। यहाँ लेखिका ने अपने और भी कुछ विचार रखे हैं लेकिन इसमें मेरा स्वयं का अनुभव लेखिका के विचारों से अलग नहीं रहा है। मैंने स्वयं ने अपने पहनावे के लिए बहुत लोगों का कटाक्ष और टिप्पणियाँ सुनी हैं क्योंकि मैं मेरे अनुसार चलता हूँ अतः यहाँ यह भी लैंगिक मुद्दा होने के स्थान पर लोगों की सोच का मुद्दा है जिसका लैंगिकता से ज्यादा लेना देना नहीं है। लेखिका अपने आप को लड़कियों जैसा रखती हैं और वो सब करती हैं जो अन्य लड़कियाँ करती हैं और उन्हें अपने नारीवादी होने में किसी तरह की शर्म नहीं आती। मुझे यह सब सामान्य लगता है अतः इसपर कोई टिप्पणी नहीं कर रहा।

आगे लेखिका ने बताया है कि लोग लैंगिक मुद्दों पर बात करना पसन्द नहीं करते। सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि इसके लिए नारीवादी अथवा फेमिनिस्ट नाम क्यों? इन्हें मानव व्यवहार अथवा ऐसा कुछ क्यों नहीं कह सकते? लेखिका अपने विचार रखती हैं कि नारीवाद भी मानव अधिकारों का एक भाग है लेकिन केवल मानव अधिकारों की बात करने पर यह बड़ा मुद्दा पिछे रह जाता है जिसमें हज़ारों वर्षों का इतिहास शामिल है। यह तर्क मुझे इसी तरह लगता है जैसे बचपन में मेमने और शेर की कहानी पढ़ी थी। शेर ने मेमने को खाने के लिए गाली का बहाना बनाया और कह दिया कि तुमने नहीं तो तुम्हारे पूर्वजों ने मुझे गाली दी थी। हालांकि यहाँ शेर और मेमना ताकत में अलग-अलग हैं लेकिन यह तर्क कुछ इस तरह का लगता है कि अपने आप को प्रसिद्धि दिलाने के लिए लोगों को हज़ारों वर्ष पूर्व का उदाहरण दे दो जबकि हमें सच में उस स्थान का 50 वर्ष पूराना इतिहास भी ज्ञात नहीं होता है।

लेखिका ने आगे यह भी वर्णित किया है कि बहुत पुरुष कहते हैं कि हम लैंगिकता के बारे में नहीं सोचते और बहुत पहले ऐसे भेदभाव हुये होंगे लेकिन आज तो नहीं हैं। लेकिन वो भूल जाते हैं कि भोजनालय में भोजन करने के लिए जाते समय केवल पुरुष का अभिवादन किया जाता है, पुरुष का नहीं। ऐसा भेदभाव आज भी जारी है जिसको पुरूष सोच नहीं पाते हैं अथवा देखते भी नहीं हैं। लेखिका आगे यह भी कहती हैं कि लैंगिक भेदभाव और गरीबी-अमीरी का भेदभाव तुलना योग्य नहीं हैं। ये उदाहरण नारीवाद को कमजोर करने के लिए दिया जाता है अतः इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। लेखिका के अनुसार वो अपने उन अनुभवों को साझा कर रही है जो उन्होंने महिला होने के कारण देखे हैं ठीक उसी तरह से एक काले व्यक्ति ने अपने रंग के कारण कुछ अनुभव किये होंगे जिन्हें मानव-भेदभाव कहकर अथवा मानवाधिकार कहकर समाप्त नहीं किया जा सकता। कई पुरुष कह देते हैं कि महिला के पास नीचे वाली शक्ति होती है जिससे वो किसी भी पुरुष को काबू में कर लेती है। इसपर लेखिका का उत्तर यह है कि यह शक्ति नहीं है बल्कि यह केवल नीचे के सुख के आधार पर किसी का लाभ उठाना मात्र है क्योंकि यदि कोई पुरुष खराब व्यवहार वाला अथवा नपुंसक है तब क्या होगा? कुछ लोग कहते हैं कि महिला तो पुरुषों के अधीनस्थ होनी चाहिये क्योंकि यह उनकी संस्कृति का हिस्सा है जिसपर लेखिका कहती हैं कि संस्कृतियाँ तो बदलती रहती हैं। वो अपने जुड़वाँ भतीजो/भानजों का उदाहरण देती हैं कि वो अब 15 वर्ष के हो गये और सबकुछ ठीक है लेकिन यदि ऐसा 100 वर्ष पहले हुआ होता तो उन्हें मार दिया जाता क्योंकि उस समय इब्गो लोगों में जुड़वाँ बच्चों को शैतान माना जाता था लेकिन आज ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता। लेखिका के अनुसार संस्कृति इंसान नहीं बनाती जबकि इंसान इसे बनाते हैं और यदि इंसान ऐसी संस्कृति बना लें जिसमें महिलाओं का कोई अधिकार नहीं तो फिर महिला उस संस्कृति का हिस्सा कैसे बनी?

लेखिका अपने दोस्त ओकोलोमा को याद करती हैं जब उसने उन्हें पहली बार नारीवादी कहा था। उन्होंने शब्दकोश में इसका अर्थ देखा जिसके अनुसार नारीवादी वो लोग होते हैं जो सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक रूप से लैंगिक समानता में विश्वास रखते हैं। लेखिका ने इसका अन्त अपनी पड़दादी/पड़नानी और अपने भाई को नारीवादी कहकर किया है। उनके अनुसार उनकी पड़दादी/पड़नानी ने अपने विवाह का विरोध किया और अपनी पसन्द से विवाह किया जबकि वो नारीवाद का अर्थ भी नहीं जानती थी। इसी तरह उन्हें उनका भाई दिलेर और मर्दाना होते हुये भी बहुत प्यार लगता है जिसमें वो नारीवादी चेहरा देखती हैं। यहाँ इस निबंध में बहुत छोटी-छोटी कहानियाँ हैं जो समाज के एक पक्ष को दिखाती हैं लेकिन उसकी आधी परछाई मात्र से परिणाम निकाला जाता है। यहाँ ये परिणाम उस रक्त जाँच की तरह नहीं हैं जिसकी एक बूँद से उसका प्रकार और समस्यायें बता दी जाती हैं। अतः यह एक लम्बा तर्क का विषय हो सकता है।

मेरे लिये अंग्रेज़ी भाषा में लिखी यह दूसरी पुस्तक है जिसे मैंने पूर्णतः पढ़ लिया है।

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