बुधवार, 23 नवंबर 2022

हम सभी को नारीवादी होना चाहिये : पुस्तक समीक्षा

 

इस वर्ष कथित नारीवादी सोच रखने वाली महिलाओं के कुतर्कों से परेशान होकर मैंने एक पुस्तक पढ़ने का निर्णय लिया और इसे भविष्य में क्रय करने की इच्छा से एमज़ोन के कार्ट में जोड़ लिया। इसी वर्ष सितम्बर में इसे क्रय भी कर लिया। इस पुस्तक का शीर्षक "We Should All Be Feminists" (हम सभी को नारीवादी होना चाहिये) है जिसे चिमामाण्डा नगोज़ी अदिची ने लिखा है। जब पुस्तक मेरे हाथ में आयी तो बहुत बुरा लगा क्योंकि यह आकार में बहुत छोटी और पतली थी जिसमें कुल 51 पृष्ठ हैं और इसका आकार ए4 पेपर के चौथे हिस्से का है। इसमें एक सकारात्मक पक्ष यह था कि इसे पढ़ने में अधिक समय नहीं लगेगा। इसकी लेखिका नाईजीरिया की हैं और यह पुस्तक उनके एक टेड-टॉक से लिखी गयी है। वर्ष 2012 में लेखिका ने टेडेक्स की बातचीत में इस विषय पर बोला था जिसे बाद में फोर्थ स्टेट ने वर्ष 2014 में प्रकाशित किया। इस पुस्तक में नारीवाद को परिभाषित किया गया है। मैं इस पुस्तक को पढ़ते हुये इसपर मेरे विचार प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ।
पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर कुछ वृत बने हुये हैं जिनको आधा काला और आधा सफेद रखा गया है। शायद इन्हें समानता प्रदर्शित करने के लिए दर्शाया गया है लेकिन यदि इनमें कोई यह कहे कि श्वेत को बायीं एवं काले को दायीं तरफ क्यों रखा गया है? श्वेत भी पूरी तरह श्वेत नहीं है, वो हलका पीलापन लिये हुये है। इसी तरह लेखक का नाम भी इस हल्के पीले रंग में लिखा है और उसके नीचे काले रंग में पुस्तक का शीर्षक है। पुस्तक के पहले पृष्ठ पर केवल परिचय नाम से शीर्षक रखा गया है और बाकी पहले दोनों पृष्ठ इस नाम पर खाली रखे गये हैं। पृष्ठ संख्या 3 पर निम्बंध आरम्भ होता है। पृष्ठ संख्या 3 और 4 पर लेखिका ने लघुतम रूप में यह बताया है कि उन्होंने यह भाषण क्यों और कौनसी परिस्थितियों में दिया था और इस पुस्तक में उसका संशोधित रूप लिखा हुआ है। अगले दो पृष्ठ फिर खाली हैं केवल एक जगह शुरूआत में पुस्तक का शीर्षक लिखा हुआ है। पुस्तक की वास्तविक शुरूआत पृष्ठ संख्या 7 से आरम्भ होती है।

लेखिका ने इसकी शुरुआत अपने एक दोस्त ओकोलोमा से आरम्भ की है जो वर्ष 2005 में एक हवाई दुर्घटना में मर चुके हैं। लेखिका अपने इन भावों को शब्दों में नहीं लिख पाती हैं लेकिन अपने दुख को प्रकट कर रही हैं और उनके अनुसार उनका यह दोस्त पहला व्यक्ति था जिसने उन्हें फेमिनिस्ट अर्थात नारीवदी कहा। वो जब 14 वर्ष की थी तब उनके दोस्त ने एक दिन आपसी चर्चा/बहस के दौरान उन्हें कटाक्ष करते हुये नारीवादी कहा था। लेखिका को इस शब्द का अर्थ ज्ञात नहीं था लेकिन उन्होंने यह प्रत्यक्ष रूप में दिखाने के स्थान पर बाद में शब्दकोश में खोजना उचित समझा। इसके बाद लेखिका वर्ष 2003 की एक घटना का वर्णन कर रही हैं जब वो अपनी एक पुस्तक का प्रचार प्रसार कर रहीं थी तब एक पत्रकार ने उन्हें अनचाही सलाह दे दी। यहाँ लेखिका लिख रही हैं कि नाईजीरिया में ऐसे सलाह देने वाले बहुतायत में पाये जाते हैं। इसके बाद लेखिका कुछ रोचक बातें लिखती हैं। उनके अनुसार पत्रकार ने उन्हें कहा कि उनकी पुस्तक के बाद लोग उन्हें नारीवादी कहेंगे लेकिन उन्हें स्वयं को कभी नारीवादी नहीं कहना चाहिए क्योंकि नारीवादी महिलाओं को पति नहीं मिलते और इस कारण से वो दुखी रहती हैं। इसके बाद लेखिका ने स्वयं को खुश नारीवादी कहने का निर्णय लिया। इसके बाद उनका सामना नाईजीरिया की एक अकादमिक से जुड़ी महिला से हुआ जिनके अनुसार उन्हें नारीवादी पुस्तकें नहीं लिखनी चाहियें क्योंकि यह पाश्चात्य विचार है और अफ्रीकी लोग नारीवादी नहीं होते। इसके बाद लेखिका ने स्वयं को खुश अफ्रीकी नारीवादी कहने का निर्णय लिया। इसके पश्चात् उनके किसी दोस्त ने उन्हें बताया कि नारीवादी महिलायें पुरुषों से नफरत करती हैं जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने स्वयं को खुश रहने वाली अफ्रीकी नारीवादी जो पुरुषों से नफरत नहीं करती कहना आरम्भ कर दिया। इस तरह आगे बढ़ते हुये उन्होंने अपने आप को इस तरह परिभाषित कर लिया: खुश रहने वाली अफ्रीकी नारीवादी जो पुरुषों से नफरत नहीं करती, जो होठलाली (होठ को चमक लाने वाला) लगाती हैं, जो स्वयं के लिए ऊँची एडी की चप्पल/जुते पहनती हैं और यह पुरुषों के लिए नहीं करती। इस तरह उन्होंने इस शब्द की कृत्रिमता को दर्शया है कि लोग नारीवादी को इतना भारी मान लेते हैं जिसमें नकारात्मक भारीपन भरा हुआ है: वो पुरुषों से नफरत करती हैं, वो चोली से नफरत करती हैं, वो अफ्रीकी संस्कृति से नफरत करती हैं, वो ऐसा सोचती हैं कि वो हमेशा प्रभावी होती हैं, वो कभी शृंगार नहीं करती, वो कभी शरीर के बाल नहीं हटाती, वो हमेशा गुस्से में रहती हैं, वो हास्यवृत्ति नहीं रखती, वो गंधनाशकों का प्रयोग नहीं करती।

इसके बाद लेखिका अपनी एक कहानी लिखती हैं जिसके अनुसार जब वो प्राथमिक विद्यालय में पढ़ती थी तब शिक्षिका ने एक परख लेने का निर्णय लिया और बताया कि जो इस परख में शीर्ष पर होगा उसे कक्षा का मॉनीटर बनाया जायेगा। लेखिका इससे काफी उत्सुक थी क्योंकि मॉनीटर के पास बहुत सारे अधिकार होते हैं, वो पीटाई करने के लिए बेंत नहीं रख सकता लेकिन रुतबा कम भी नहीं होता। इस तरह उन्होंने अच्छी मेहनत करके कक्षा में शीर्ष अंक प्राप्त किये। लेकिन उन्हें तब आश्चर्य हुआ जब उनकी शिक्षक ने बताया कि वो पहले बताना भूल गयी थी की मॉनीटर केवल लड़का हो सकता है अतः दूसरे स्थान पर रहने वाला लड़का मॉनीटर बन गया। शिक्षिका ने शायद यह तय मान लिया था कि कक्षा में शीर्ष पर तो लड़का ही रहेगा। वो लड़का मॉनीटर बनने में कोई रुचि नहीं रखता था और बहुत ही प्यारा था। लेकिन लेखिका ऐसी रुचि रखते हुये भी ऐसा नहीं कर पायी। लेखिका के अनुसार ऐसी परम्परायें लगातार बनी रहने पर हम उसे स्वाभाविक मान लेते हैं और इसको बदलने के बारे में सोचते भी नहीं हैं।

इसके बाद लेखिका अपने एक और दोस्त की कहानी लिखती हैं जिनका नाम लुई/लुईस है और उसके साथ वो कई बार बातें करती थी और वो महिलाओं के पास कम जिम्मेदारियाँ होने के कारण उनका जीवन सरल होने की बात कहता था। वो प्रगतिशील विचारों वाला व्यक्ति है इसके साथ वो नाईजीरिया के बड़े नगर लेगोस की चर्चा करती हैं। लेखिका के अनुसार वहाँ पर अपनी कार खड़ी करने के लिए जगह नहीं मिलती लेकिन कुछ लोग स्वयंसेवक के रूप में लोगों की इसमें सहायता करते हैं और लोगों द्वारा उपहार के रूप में दिये जाने वाले धन से उनकी आमदनी होती है। इसमें एक दिन का किस्स लिखती हैं जिसके अनुसार उन्होंने एक दिन ऐसे स्थान से छोड़ते समय वहाँ सहायता करने वाले व्यक्ति को कुछ धन बख्शीश के रूप में देती है और वो व्यक्ति इसके बदले लुई को धन्यवाद देता है। वो दोनों इस धन्यवाद को समझ नहीं पाते हैं लेकिन बाद में लेखिका ने यह समझाया कि उस व्यक्ति के अनुसार लेखिका के पास जो धन है वो पूरा लुई ने उसे दिया है।

लेखिका की अगली कहानी पुरुष और महिला में भिन्नता को समझाने से हुआ है जिसके अनुसार महिला बच्चों को जन्म दे सकती है लेकिन पुरुष नहीं लेकिन इसके विपरीत पुरुष शरीर से अधिक ताकतवर होता है लेकिन विश्व में महिलाओं की संख्या पुरूषों से अधिक होती है। इसके साथ ही वो केन्या की नोबेल पुरस्कार विजेता वंगारी मथाई के कथन के बारे में बताती हैं जिसके अनुसार ज्यों ज्यों ताकत के पदों में उपर जावोगे, महिलाओं का अनुपात कम होता जायेगा। उनके अनुसार आज से हज़ार वर्ष पहले पुरुषों का शासन होना समझ में आता है क्योंकि तब शारीरिक ताकत से ही अधिकार प्राप्त होते थे लेकिन आज का विश्व एकदम अलग है। आज ताकत के स्थान पर बुद्धिमता आधारित विश्व है और इसके लिए पुरुष एवं महिलाओं के हार्मोन में अन्तर नहीं होता। इसमें दोनों एक जैसे हैं लेकिन सत्ता के केन्द्र में आज भी बदलाव नहीं हुये हैं।

लेखिका ने नाईजीरिया में एक होटेल का किस्सा लिखा है जिसमें उनसे पूछा जाता है कि वो किसके मकान में जाना चाहती हैं? वो अपना पहचान पत्र दिखाकर अकेली नहीं जा सकती क्योंकि वहाँ अकेली महिला को सेक्स-वर्कर समझा जाता है। अकेली महिला किसी अच्छे कल्ब या मधुशाला में नहीं जा सकती। जब भी वो किसी भोजनालय में जाती हैं तो अभिवादन उनके साथ होने वाले पुरुष का होता है। लेखिका को यह सौतेला व्यवहार बुरा लगता है लेकिन वो जानती हैं कि यह उन व्यक्तियों की गलती नहीं है क्योंकि वो उसी समाज में पले बढ़े हैं। वो लैंगिक भेदभाव के प्रति अपने गुस्से को भी लिखती हैं जिसके अनुसार उन्हें यह देखकर गुस्सा आता है कि महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव होता है। उनके एक परिचित ने सलाह दी कि गुस्सा महिलाओं को शोभा नहीं देता। उन्होंने एक किस्सा अमेरिका का भी लिखा है जिसमें उनकी दोस्त का एक पुरुष कर्मचारी के साथ व्यवहार और एक पुरुष की जालसाजी को सामने लाने का किस्सा लिखा है जिसमें जालसाजी वाला व्यक्ति उस महिला की शिकायत उपर के अधिकारियों को कर देता है जिसमें महिला होने के स्वभाव का तड़का लगा हो। एक कहानी उन्होंने अपनी अन्य अमेरिकी महिला दोस्त की लिखी है जो विज्ञापन सम्बंधित कार्य करती है और उसका बोस उसकी टिप्पणियों को अनसुना कर देता है और वह बात ही किसी पुरुष के कहने पर वो सुनकर मान लेता है। उसकी दोस्त बहुत रोती है और अपने आक्रोस को अपने अन्दर ही उबलने देती है। यहाँ इन कहानियों में मुझे कहीं भी महिला होना प्रतीत नहीं हुआ क्योंकि मैंने स्वयं अपने जीवन में ऐसा भेदभाव स्थानीयता और अन्य आधारों पर अनुभव किया है जबकि मैं पुरुष हूँ। मुझे यहाँ ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे लेखिका सभी परिस्थितियों को महिला चेहरे से जोड़कर उनको व्यापक रूप में दिखाना चाहती है जबकि इसकी व्यापकता कहीं और छुपी हुई है।

आगे लेखिका ने इसका वर्णन किया है कि बाज़ार में ऐसे सामान बहुतायत में पाये जाते हैं जो एक महिला किसी पुरुष को कैसे खुश रखे इसका विवरण होता है लेकिन इसके विपरीत कुछ भी नहीं मिलता। लड़कियों को बचपन से सिखाया जाता है कि लड़कों को कैसे सहन करते हैं लेकिन लड़कों को ऐसा नहीं सिखाया जाता। मेरा विचार यहाँ पुनः विरोधाभाषी है। हाँ मुझे घर पर ऐसा नहीं सिखाया गया कि लड़कियों से कैसे बात करनी है लेकिन किसी भी मामले में ऐसे भेदभाव उस समाज में महसूस नहीं किये जाते जहाँ से मैं हूँ। बाज़ार में उपलब्ध सामान की बात की गयी है तो उसके स्थान पर यह भी बहुतायत में मिलता है कि एक लड़की अथवा महिला को कैसे खुश रखा जाता है। हालांकि इस मामले में दोनों तरह की कहानियाँ और सामान मुझे अर्थहीन लगते हैं। आगे लेखिका ने अपनी एक छात्रा का वाक्य लिखा है जिसके अनुसार वो उन्हें पुछ्ती है कि उसके मित्र ने उसे नारीवादी बातें न सुनने के लिए कहा है अन्यथा उसका वैवाहिक जीवन प्रभावित होगा। यहाँ पर लेखिका एक अलग दुनिया की बात करती हैं और कहती हैं कि हमें (पूरे विश्व में) अपने लड़कों को अलग और लड़कियों को अलग तरिके से पालन-पोषण करने की आवश्यकता है। मुझे लगता है लेखिका यहाँ पर अपने विचारों के अनुरूप वर्तमान से अलग की बात कर रही हैं लेकिन मुझे लगता है कि लड़के और लड़कियाँ दोनों का समान पृष्ठभूमि में पालन पोषण होना चाहिए।

लेखिका ने बाहर होने वाले खर्चे में पुरुषों के भुगतान पर भी कहा है कि वहाँ भी लड़के और लड़की को अपना-अपने भाग का भुगतान करना चाहिये या जिसके पास अधिक है उसे भुगतान करना चाहिए। मैं यहाँ लेखिका से सहमत हूँ और जीवन में हमेशा ऐसा ही किया है। लेखिका ने आगे यह भी लिखा है कि महिलायें हमेशा अपने आप को पुरुषों से कम ऊँचाई पर रखती हैं और उन्हें बचपन से यह सिखाया जाता है कि जीवन में आगे बढ़ो, सबकुछ करो लेकिन बहुत अधिक सफलता प्राप्त मत करो अन्यथा आप पुरुषों को डराने लगोगी। आप यदि घर में पुरुष पर हावी होती हो तो भी लोगों के सामने ऐसा मत करना अन्यथा वो प्रभावहीन हो जायेगा। लेखिका यहाँ पुछती हैं कि ऐसा क्यों होता है? पुरूष और महिला में किसी को एक दूसरे पर अधिक प्रभावशाली क्यों होना है? नाईजीरिया के एक परिचित ने पूछा कि यदि कोई व्यक्ति उनके द्वारा धमकाया हुआ महसूस करे तो वो लिखती हैं कि उन्हें बिलकुल भी चिन्ता नहीं होगी क्योंकि उनके द्वारा जिस व्यक्ति को धमकाया हुआ महसूस होगा वो उनके जैसा नहीं होगा। आगे लेखिका कहती हैं कि लड़कियों को ऐसा सिखाया जाता है कि उन्हें विवाह करना है और बाद में उस वैवाहिक जीवन में उन्हें प्यार, खुशी और साथ मिलेगा। लेकिन यह केवल लड़कियों को ही क्यों सिखाया जाता है, लड़कों को क्यों नहीं? आगे वो नाईजीरिया के कुछ उदाहरण लिखती हैं जिसमें पहले के अनुसार एक महिला अपना घर बेचना चाहती हैं क्योंकि वो उस व्यक्ति को भयभीत नहीं करना चाहती जो उनके साथ विवाह करना चाहता है। दूसरे उदाहरण में वो एक अविवाहित महिला के बारे में लिखती हैं जो सम्मेलन में इसलिए विवाहित महिला जैसा शृंगार करके जाती है क्योंकि इससे उसके साथी उसे सम्मान देंगे। लेखिका उस महिला के शृंगार का विरोध नहीं कर रहीं बल्कि वो यह पूछ रही हैं कि ऐसे शृंगार नहीं करने पर सम्मान क्यों नहीं मिलेगा? महिलाओं पर समाज, परिवार और रिश्तेदारों का विवाह करने के लिए इतना दवाब होता है कि वो कई बार भयानक फैसले ले लेती हैं। आगे विवाह के बारे में पुरुष पर कोई दवाब न होने की बात कही गयी है। इसके बाद लेखिका ने स्पष्ट करना चाहा है कि यहाँ सामाजिक तौर पर भागीदारी की बात नहीं होती बल्कि स्वामित्व की बात होती है। हम यह तो अपेक्षा करते हैं कि महिला पुरुष का सम्मान करे लेकिन पुरुष से महिला की तरफ ऐसा कुछ नहीं समझते। सभी पुरुष और महिलायें इसपर कहेंगे कि "यह तो मैंने मेरे वैवाहिक जीवन की शान्ति के लिए किया।" आगे कुछ वाक्य लिखे हैं जिनके साथ यह प्रयास किया गया है जो प्रदर्शित करता हो कि महिला ही वैवाहिक जीवन के लिए अधिक समझौते करती है। लेखिका आगे लिखती हैं कि हम लड़कों का ध्यान नहीं रखते कि कितनी महिला-मित्र/प्रेमिकायें रखता है लेकिन लड़कियों को पुरुष-मित्र/प्रेमी की अनुमति नहीं देते और एक आयु के बाद अपेक्षा करते हैं कि वो एक अच्छे पुरुष के साथ विवाह कर ले। हम महिला के कौमार्य की बात करते हैं जबकि पुरुष के कौमार्य की नहीं करते जबकि कौमार्य दोनों का एक साथ ही चला जाता है। नाईजीरिया में ही एक विश्वविद्यालय में एक लड़की के साथ कुछ लड़कों ने बलात्कार किया तो सबने इसे गलत बताया लेकिन साथ में सवाल भी रखा कि वो लड़की चार लड़कों के साथ कमरे में क्या कर रही थी? लेखिका ने आगे लड़कियों को जन्म से यह प्रदर्शित करने की बात समझा रही हैं जिनमें उन्हें दिखाया जाता है कि लड़की के रूप में जन्म लेना अपराध है और इसके लिए उन्हें विशेष रूप से शरीर को ढ़ककर रखना होगा। वो नाईजीरिया की एक महिला के बारे में लिखती हैं जो गृहकार्यों में रुचि होने का दिखावा करती है और उसका विवाह होने के बाद ससुराल वालों की तरफ से इसकी शिकायत आती है कि वो बदल गयी है क्योंकि वो तो पहले भी दिखावा ही कर रही थी। यहाँ मैं लेखिका के एकतरफा उदाहरणों से इतना ही कह सकता हूँ कि कुछ हद तक कुछ उदाहरण सही हैं लेकिन कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो वास्तविकता में बहुत छोटे स्तर पर होते होंगे जिन्हें बड़ा करके दिखाया गया है क्योंकि मैंने तो इसका विपरीत भी देखा है और ऐसे बहुत लोगों को जानता हूँ जो एक सफल महिला को पाने के लिए अपना सबकुछ दाँव पर लगा देते हैं। अतः सही ढ़ंग से समझा जाये तो यह तर्क कुछ ठीक नहीं बैठता।

लेखिका ने आगे के भाग में भोजन बनाने पर लिखा है कि विश्व में ज्यादातर महिलायें घर पर खाना बनाती हैं जबकि ऐसा जीन (जनन कोशिकायें) में नहीं होता होगा। जबतक 'शेफ' के रूप में बड़ी संख्या में पुरुष प्रसिद्ध नहीं हो गये तब तक लेखिका ऐसा मानती थी कि यह जीन के कारण है कि महिलायें ही खाना बनाने और सफाई में अच्छी होती हैं। लेखिका यह भी कहती हैं कि उनकी दादी के समय से लेखिका के समय तक आते हुये इसमें बहुत अधिक बदलाव हो गये हैं। यहाँ समझने लायक यह बात है कि वो सभी बदलाव उसके दादाजी के काल से भी जोड़े जा सकते हैं। मशीनीकरण बढ़ गया है और इसके कारण जो काम महिला और पुरुष के मध्य बांटकर रखे जाते थे उनमें से बहुत काम मशीनों ने ले लिये अतः बदलाव तो होना ही था। इसको नारीवाद से कैसे जोड़ा जा सकता है? आगे लेखिका ने दो उदाहरण दिये हैं जिनमें पहले में भाई-बहन का उदाहरण दिया है कि भाई को जब भी भूख लगती है तब उसके माता-पिता बहन को कुछ बनाकर लाने को कहते हैं जबकि यह काम दोनों को सिखाया जाना चाहिये था। मैं लेखिका के इस कथन से सहमत हूँ कि ऐसा जिस घर में होता है, नहीं होना चाहिए। इसके बाद दूसरे उदाहरण में वो समान डिग्रीधारी पति-पत्नी की बात की है और कहा है कि घर पर खाना हमेशा पत्नी ही बनाती थी। मैं यहाँ लेखिका अथवा उनके समर्थकों से पूछना चाहता हूँ कि ऐसा कहाँ होता है? महिलायें हमेशा स्वयं से बेहतर की खोज में स्वयं को खाना बनाने से जोड़ लेती हैं इसमें पुरुष का तो कोई दोष नहीं है। जो महिलायें स्वयं से कमजोर पति खोजती हैं वो इसका उल्टा भी करती हैं।

लेखिका अपने स्नातक के समय के बारे में लिखती हैं कि उन्हें एक दिन कुछ प्रस्तुति देनी थी और उन्हें इस बात की चिन्ता हो रही थी कि वो क्या पहने जिससे उन्हें गंभीरता से लिया जाये जबकि उन्होंने अपना विषय अच्छे से तैयार किया था। यहाँ लेखिका ने अपने और भी कुछ विचार रखे हैं लेकिन इसमें मेरा स्वयं का अनुभव लेखिका के विचारों से अलग नहीं रहा है। मैंने स्वयं ने अपने पहनावे के लिए बहुत लोगों का कटाक्ष और टिप्पणियाँ सुनी हैं क्योंकि मैं मेरे अनुसार चलता हूँ अतः यहाँ यह भी लैंगिक मुद्दा होने के स्थान पर लोगों की सोच का मुद्दा है जिसका लैंगिकता से ज्यादा लेना देना नहीं है। लेखिका अपने आप को लड़कियों जैसा रखती हैं और वो सब करती हैं जो अन्य लड़कियाँ करती हैं और उन्हें अपने नारीवादी होने में किसी तरह की शर्म नहीं आती। मुझे यह सब सामान्य लगता है अतः इसपर कोई टिप्पणी नहीं कर रहा।

आगे लेखिका ने बताया है कि लोग लैंगिक मुद्दों पर बात करना पसन्द नहीं करते। सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि इसके लिए नारीवादी अथवा फेमिनिस्ट नाम क्यों? इन्हें मानव व्यवहार अथवा ऐसा कुछ क्यों नहीं कह सकते? लेखिका अपने विचार रखती हैं कि नारीवाद भी मानव अधिकारों का एक भाग है लेकिन केवल मानव अधिकारों की बात करने पर यह बड़ा मुद्दा पिछे रह जाता है जिसमें हज़ारों वर्षों का इतिहास शामिल है। यह तर्क मुझे इसी तरह लगता है जैसे बचपन में मेमने और शेर की कहानी पढ़ी थी। शेर ने मेमने को खाने के लिए गाली का बहाना बनाया और कह दिया कि तुमने नहीं तो तुम्हारे पूर्वजों ने मुझे गाली दी थी। हालांकि यहाँ शेर और मेमना ताकत में अलग-अलग हैं लेकिन यह तर्क कुछ इस तरह का लगता है कि अपने आप को प्रसिद्धि दिलाने के लिए लोगों को हज़ारों वर्ष पूर्व का उदाहरण दे दो जबकि हमें सच में उस स्थान का 50 वर्ष पूराना इतिहास भी ज्ञात नहीं होता है।

लेखिका ने आगे यह भी वर्णित किया है कि बहुत पुरुष कहते हैं कि हम लैंगिकता के बारे में नहीं सोचते और बहुत पहले ऐसे भेदभाव हुये होंगे लेकिन आज तो नहीं हैं। लेकिन वो भूल जाते हैं कि भोजनालय में भोजन करने के लिए जाते समय केवल पुरुष का अभिवादन किया जाता है, पुरुष का नहीं। ऐसा भेदभाव आज भी जारी है जिसको पुरूष सोच नहीं पाते हैं अथवा देखते भी नहीं हैं। लेखिका आगे यह भी कहती हैं कि लैंगिक भेदभाव और गरीबी-अमीरी का भेदभाव तुलना योग्य नहीं हैं। ये उदाहरण नारीवाद को कमजोर करने के लिए दिया जाता है अतः इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। लेखिका के अनुसार वो अपने उन अनुभवों को साझा कर रही है जो उन्होंने महिला होने के कारण देखे हैं ठीक उसी तरह से एक काले व्यक्ति ने अपने रंग के कारण कुछ अनुभव किये होंगे जिन्हें मानव-भेदभाव कहकर अथवा मानवाधिकार कहकर समाप्त नहीं किया जा सकता। कई पुरुष कह देते हैं कि महिला के पास नीचे वाली शक्ति होती है जिससे वो किसी भी पुरुष को काबू में कर लेती है। इसपर लेखिका का उत्तर यह है कि यह शक्ति नहीं है बल्कि यह केवल नीचे के सुख के आधार पर किसी का लाभ उठाना मात्र है क्योंकि यदि कोई पुरुष खराब व्यवहार वाला अथवा नपुंसक है तब क्या होगा? कुछ लोग कहते हैं कि महिला तो पुरुषों के अधीनस्थ होनी चाहिये क्योंकि यह उनकी संस्कृति का हिस्सा है जिसपर लेखिका कहती हैं कि संस्कृतियाँ तो बदलती रहती हैं। वो अपने जुड़वाँ भतीजो/भानजों का उदाहरण देती हैं कि वो अब 15 वर्ष के हो गये और सबकुछ ठीक है लेकिन यदि ऐसा 100 वर्ष पहले हुआ होता तो उन्हें मार दिया जाता क्योंकि उस समय इब्गो लोगों में जुड़वाँ बच्चों को शैतान माना जाता था लेकिन आज ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता। लेखिका के अनुसार संस्कृति इंसान नहीं बनाती जबकि इंसान इसे बनाते हैं और यदि इंसान ऐसी संस्कृति बना लें जिसमें महिलाओं का कोई अधिकार नहीं तो फिर महिला उस संस्कृति का हिस्सा कैसे बनी?

लेखिका अपने दोस्त ओकोलोमा को याद करती हैं जब उसने उन्हें पहली बार नारीवादी कहा था। उन्होंने शब्दकोश में इसका अर्थ देखा जिसके अनुसार नारीवादी वो लोग होते हैं जो सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक रूप से लैंगिक समानता में विश्वास रखते हैं। लेखिका ने इसका अन्त अपनी पड़दादी/पड़नानी और अपने भाई को नारीवादी कहकर किया है। उनके अनुसार उनकी पड़दादी/पड़नानी ने अपने विवाह का विरोध किया और अपनी पसन्द से विवाह किया जबकि वो नारीवाद का अर्थ भी नहीं जानती थी। इसी तरह उन्हें उनका भाई दिलेर और मर्दाना होते हुये भी बहुत प्यार लगता है जिसमें वो नारीवादी चेहरा देखती हैं। यहाँ इस निबंध में बहुत छोटी-छोटी कहानियाँ हैं जो समाज के एक पक्ष को दिखाती हैं लेकिन उसकी आधी परछाई मात्र से परिणाम निकाला जाता है। यहाँ ये परिणाम उस रक्त जाँच की तरह नहीं हैं जिसकी एक बूँद से उसका प्रकार और समस्यायें बता दी जाती हैं। अतः यह एक लम्बा तर्क का विषय हो सकता है।

मेरे लिये अंग्रेज़ी भाषा में लिखी यह दूसरी पुस्तक है जिसे मैंने पूर्णतः पढ़ लिया है।

शनिवार, 19 नवंबर 2022

लोगों के साथ काम करने की कला : पुस्तक समीक्षा

अभी कुछ माह पहले मैं मुम्बई आ रहा था तब से एक पुस्तक पढ़ने का प्रयास किया था लेकिन रेलगाड़ी में इसे पढ़ नहीं पाया। चूँकि बाद में समय का प्रबन्धन नहीं कर पाया अतः लिखकर पढ़ना आरम्भ कर दिया। अंग्रेज़ी भाषा में लिखी हुई मेरे पास उपलब्ध पुस्तकों में सबसे छोटी पुस्तक यह थी और इसको मैंने अगस्त 2019 में क्रय किया था और यह शायद वर्ष 2001 में पहली बार मुद्रित हुई है। इस पुस्तक का शीर्षक "The Art of Dealing with People" (अर्थात् लोगों के साथ काम करने की कला) है और इसे लेस गिब्लिन नामक लेखक ने लिखा है। इस पुस्तक में कुल 57 पृष्ठ हैं और पृष्ठ का आकार भी लगभग सामान्य ए4 पृष्ठ की एक तिहाई है। इसके रचियता लेस गिब्लिन हैं जिनके नाम को लेस जिब्लिन भी पढ़ा जाता है। इसमें लिखे के अनुसार उन्होंने सैकड़ों कंपनियों और संगठनों के लिए लोगों के कौशल पर हज़ारों में सेमिनार संचालित किये हैं। उनकी विभिन्न पुस्तकें बेस्ट सेल्लर रही हैं, जहाँ बेस्ट सेल्लर लोकप्रियता के स्तर को उनकी विक्रय होने की संख्या के आधार पर मापन किया जाने वाला एक प्राचल है। पुस्तक में मुझे कुछ रोचक जानकारियाँ मिली। वैसे तो ऐसी जानकारियों से हर कोई परिचित होता है लेकिन फिर भी मुझे ये विशेष लगी अतः इन्हें लिखकर रख रहा हूँ।


पुस्तक की शुरुआत नॉर्मन विंसेंट पील के उद्धरण से होती है। पील एक अमेरिकी प्रोटेस्टेंट संप्रदाय के पादरी थे जिन्होंने सकारात्मक सोच की अवधारणा के प्रचार-प्रसार के लिए विभिन्न पुस्तकें लिखी और इस तरह वो एक लेखक भी थे। यहाँ उनकी निम्नलिखित सूक्ति उद्धृत किया है: "...सोचने की क्षमता दिमाग को सतर्क एवं पर्याप्त रूप से प्रभावशाली बनाता है जिससे अवचेतन मन से आने वाली सोच को बदला जा सकता है; एक रचनात्मकता से भरी सोच जो सफलता और खुशियों की ओर अग्रसर करती है।"

पुस्तक की विवरणिका में 11 अध्याय होने का विवरण दिया गया है जो उन सभी विषयों को इंगित करते हैं जिससे व्यवहार को अच्छा किया जा सकता है। इसकी समीक्षा आगे की गयी है।

पहला अध्याय मानव सम्बंधों के बारे में रचनात्मकता से सोचने से सम्बंधित है। इसकी शुरुआत में कहा गया है कि जीवन में सभी का लक्ष्य सफलता और खुशियाँ होता है और इसको यदि गणितीय सुत्र से बांधा जाये तो यह एक भिन्नात्मक संख्या होगी जिसका हर अन्य लोग होंगे। अन्य लोगों का अर्थ उनका हमपर पड़ने वाला प्रभाव है जो हमारी उस क्षमता पर निर्भर करता है कि हम अन्य लोगों से कैसे निबटते हैं। इसमें केवल व्यक्तिगत संतुष्टि ही पर्याप्त नहीं है बल्कि अन्य लोगों के अहंकार पर पड़ने वाला प्रभाव भी आवश्यक भाग है। 90 प्रतिशत लोग केवल इसलिए असफल होते हैं क्योंकि वो अन्य लोगों को अच्छा व्यवहार नहीं कर पाते हैं। आपके व्यक्तित्व की समस्या अन्य लोगों के लिए परेशानी हो सकती है। कई बार व्यक्तित्व की समस्या के कारण लोग सामने से अलग दिखाई देते हैं और होते कुछ और हैं। शर्मिला दिखने वाला व्यक्ति एकदम उल्टा हो सकता है। कुछ लोग अपने आप को सर्वश्रेष्ट मान लेते हैं और सोचते हैं कि उनके साथी उनकी सराहना क्यों नहीं करते। जबकि समस्या उनके स्वयं के व्यवहार की होती है। हम किसी को पसन्द करें या न करें वो उसी तरह से रहने वाले हैं अतः किसी भी पैसे में सफल होने के लिए बुद्धिमान होना पर्याप्त नहीं है बल्कि इसके साथ लोगों के साथ व्यवहार भी मायने रखता है। एक पति-पत्नी एक दूसरे के साथ केवल बहुत आकर्षक होने से खुश नहीं रह पाते बल्कि एक दूसरे का साथ निभाने की समझ उनको खुश रखती है। मानव सम्बंधों में कौशल भी अन्य विषयों में कौशल के समान ही है जिसमें कुछ सामान्य सिद्धान्तों को समझना आवश्यक होता है। आप क्या कर रहे हैं इसके साथ यह भी ज्ञात होना आवश्यक है कि आप ऐसा क्यों कर रहे हैं। लोगों को प्रभावित करना एक कला है नौटंकी नहीं। इस पुस्तक को केवल व्यक्तिगत विचारों के आधार पर नहीं लिखा गया है बल्कि इस पुस्तक में विभिन्न प्रेक्षणों को समाहित किया गया है।

पुस्तक का दूसरा अध्याय मानव अहंकार को समझने के बारे में है। मानव अहंकार कई बार इस स्तर का हो जाता है कि लोग इसके लिए सबकुछ दाँव पर लगा देते हैं और इसी कारण अहंकारी शब्द को नकारात्मक अर्थों में लिया जाता है। लोग अपने अहंकार और आत्मस्वाभिमान को जोड़कर रखते हैं और इसमें अन्तर करना भूल जाते हैं। इसका स्तर प्रत्येक व्यक्ति में अलग होता है इसीलिये हम लोगों को मशीनों अथवा संख्याओं के रूप में नहीं मान सकते। हम यह मानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति एक अहस्तांतरणीय अधिकार लेकर जन्म लेता है जो उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है। हालांकि यह पुस्तक धर्म के बारे में नहीं है लेकिन मानव व्यवहार को धर्म से पूर्णतः अलग करके नहीं समझा जा सकता। जैसे यदि प्रत्येक व्यक्ति सभी को ईश्वर की संतान मानने लग जाता है तो व्यवहार उसके अनुरूप बदल जाता है अन्यथा वो धन अर्जित करने और अधिकार प्राप्त करने की दौड़ में लगे रहते हैं जिससे उनकी आत्मनिष्ठ के रूप में उनका अहंकार बढ़ता रहता है। आपको चार बातें अपने दिमाग में हमेशा स्थायी रूप से लिख लेनी चाहिये:
  1. हम सभी अहंकारी हैं,
  2. हम स्वयं में सबसे अधिक स्वयंहित की सोचते हैं
  3. आप जिस व्यक्ति से भी मिलते हो वो कुछ मात्रा में महत्त्वपूर्ण महसूस करना चाहता है
  4. सभी में दूसरों से अनुमोदन पाने की प्रबल इच्छा होती है जिससे उन्हें स्वयं को सिद्ध न करना पड़े।
लोगों को आत्म-केन्द्रित और अभिमानी क्या बनाता है? अहंकारी व्यक्ति का स्वाभिमान बहुत कम होता है। यदि आप अपने आप स्वयं से अच्छा व्यवहार करते हो तो अन्यों के साथ भी अच्छे रहोगे। भूखे व्यक्ति का अहंकार सामान्य अहंकार है। प्रकृति की सभी रचनाओं की मूलभूत आवश्यकताओं की कमी में उनका व्यवहार बदल सकत है और उनका इलाज उस आवश्यकता को पूर्ण करना है। भूखे व्यक्ति को ज्ञान देकर शान्त नहीं किया जा सकता बल्कि उसको भोजन देकर उसके अहंकार को कम कर सकते हैं। पदानुक्रम में अपने से निम्न पद पर स्थित व्यक्ति को दबाना लोगों के लिए स्वयं को संतुष्ट करने का एक सरल उपाय होता है जिसके इतिहास में बहुत उदाहरण मिल जायेंगे। जब अत्मसम्मान अवनति की ओर होता है तब एक दोगली बात भी उसको गुस्सा दिला सकती है। कम आत्मसम्मान वाले व्यक्ति के कारण उत्पन्न समस्या में उनकी तरह बनकर उनकी सहायता करो। ऐसे व्यक्तियों के पीछे दो कारण होते हैं जिनमें पहला उनके द्वारा स्वयं को महत्त्वपूर्ण दिखाना एवं दूसरा उनका डर। ऐसे लोगों के लिए उनके कुछ सकारात्मक पक्षों को सामने लाते हुये उनके अहंकार को बढ़ाना चाहिए। निष्ठाहीन चापलूसी नहीं करनी चाहिये बल्कि उनके कुछ ऐसे गुणों को सामने रखना चाहिये जो उनमें समाहित हैं। आप दिन में कम से कम पाँच बार ईमानदारी से प्रशंसा करो और बाद में देखो कि अन्य लोगों के साथ आपके सम्बंध कितनी आसानी से सुधर रहे हैं। मानव सम्बंधों में असफलता का पहला कारण लोगों का स्वयं का अहंकार होता है। लेखक ने स्वयं की एक घटना लिखी है कि वो एक बार एक होटेल में गये और वहाँ पर लिपिक ने उन्हें कहा कि आपको पहले बताना चाहिए था, अब उनके पास कोई जगह खाली नहीं है। इसपर लेखक ने प्यार से उन्हें जताया कि वो तो उनके भरोसे पर ही आया था और यदि वो जगह नहीं देंगे तो उन्हें खुले में ही रात निकालनी पड़ेगी। इसपर लिपिक ने आधे घंटे का समय माँगा और उस सम्मेलन कक्ष में जगह दे दी जिसको जरूरत पड़ने पर शयन कक्ष में बदला जा सकता है। इसमें दोनों को खुशी मिली। लोगों की उसी तरह से सहायता करो जैसे वो हैं।

पुस्तक के तीसरे अध्याय में लोगों को महत्त्वपूर्ण महसूस करवाने के बारे में है। शिष्टाचार और सभ्य होना दो ऐसे रास्ते हैं जो हमें लोगों के महत्त्व को स्वीकारोक्ति दिलाते हैं। हमें यह महसूस करना चाहिये कि लोग हमारे महत्त्व को पहचान एवं स्वीकार कर रहे हैं। अन्न्य लोगों को महत्त्वपूर्ण महसूस करवाने के चार तरीके ये हैं:
  1. अन्य लोगों को महत्त्वपूर्ण समझो
  2. लोगों को ध्यान से देखो जिससे उन्हें अपना महत्त्व अधिक दिखाई देगा और वो आपको उचित सम्मान देने लगेंगे
  3. लोगों के प्रतियोगी मत बनो, यदि आप किसी पर अपना प्रभाव छोड़ना चाहते हो तो उन्हें यह पता चलने दो कि आप उनसे प्रभावित हो और 
  4. यह जानकारी रखो कि दूसरों को सही कहाँ करना है।

पुस्तक का चौथा अध्याय दूसरों की कार्यवाही और मनोदृष्टि को नियंत्रित करने से सम्बंधित है। प्रत्येक व्यक्ति में दूसरों को प्रभावित करने की क्षमता होती है और हम हमेशा बहुत लोगों को कुछ हद तक प्रभावित करते हैं। किसी से बात करने पर उसका भी प्रभाव पड़ता है। आपको यह देखना चाहिये कि लोग क्या कहना चाहते हैं। जोश जुकाम से जल्दी पकड़ता है। आत्मविश्वास से आत्मविश्वास बढ़ता है अतः दूसरों पर विश्वास करना सीखो। अपने व्यक्तित्व में चुम्बकत्व उत्पन करो। अपनी चाल को देखो, आपकी चाल आपकी मनःस्थिति को निरूपित करती है। आपकी गपशप लोगों को आप स्वयं को कितना जानते हो, उससे अधिक समझा देती है। अपने आवाज के लहजे अथवा स्वर के सुर को संतुलित रखो। मुस्कान को सामने आने दो जो केवल बनावटी न हो और अन्दर से आये। इसके अतिरिक्त ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्रि विंस्टन चर्चिल के उस कथन को याद रखो जिसके अनुसार वो यह कहते हैं कि आप दूसरों को यह दिखावो कि आप उनपर विश्वास करते हो। प्रत्येक व्यक्ति में अच्छाई और बुराई दोनों होती हैं लेकिन जब आप विश्वास प्रदर्शित करते हो तो लोग अपना अच्छा दिखाने का प्रयास करते हैं।

पुस्तक का पाँचवा अध्याय लोगों पर अच्छी छाप छोड़ने से सम्बंधित है। लोग अपने बारे में क्या सोचते हैं इसपर इसका सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है कि हम स्वयं के बारे में क्या सोचते हैं। कभी भी अपने आप को न छुपायें। जब भी हम किसी विषय पर अपनी राय रखते हैं तब लोगों को हम अपने बारे में संकेत देते हैं जिससे वो अपने बारे में अपनी राय बना सकें। प्रतियोगिता में दस्तक न दें अर्थात जब आप दूसरों पर अच्छा प्रभाव छोड़ना चाहते हैं तो केवल अपने प्रभाव को आगे बढ़ायें। लोगों से नकारात्मक प्रश्न न पूछें क्योंकि उनसे नकारात्मकता बढ़ती है, केवल सकारात्मक सवाल रखें जिसमें लोगों को हाँ में उत्तर देने में सहजता हो। प्रश्न को कभी ऐसे न रखें जिससे लगे कि आप समस्य में हैं बल्कि अपना मत रखते हुये प्रश्न रखें। धीरता से यह मान लें कि आप क्या चाहते हैं, लोग वो ही करेंगे। किसी को प्रभावित करने के लिए बहुत कठिन प्रयास न करें।

पुस्तक का छठा अध्याय लोगों को स्वीकृति, अनुमोदन और प्रशंसा के साथ आकर्षित करने पर केंद्रित है। लोगों को उसी तरह स्वीकार करो जैसे वो हैं। उनको बदलकर स्वीकार करने का प्रयास मत करो। हमें लोगों को उनकी नकारात्मकता और गलतियों के साथ स्वीकार करना चाहिये। अनुमोदन से आशय यह है कि आप सभी में सकारात्मकता देखकर उन्हें स्वीकार करो। लोगों को यह प्रदर्शित करने का प्रयास करो कि वो आपके लिए कितने महत्त्वपूर्ण हैं। इसके लिए आप लोगों को प्रतीक्षा में मत रखो और यदि किसी को प्रतीक्षा में रखना पड़ रहा है तो उसे तुरन्त यह ध्यान दिला दो कि आपको पता है कि आपको प्रतीक्षा करनी पड़ रही है। लोगों को धन्यवाद ज्ञापित करो और सबके साथ ऐसा व्यवहार रखो जिससे उन्हें विशेष होना महसूस हो।

पुस्तक का सातवां अध्याय प्रभावी ढ़ंग से संवाद करना सीखने पर है। लोगों से संवाद करना हमारी खुशियों को बढ़ाता है और इसके लिए संवाद को प्रभावी रूप से कैसे करें, यह सीखना आवश्यक है। इसके लिये सबसे पहले अपने आप को उत्तम दिखाने का प्रयास बन्द कर दें। लघु वार्तायें सामान्यतः प्रभावशाली नहीं होती लेकिन वो संवाद आरम्भ करने और उसे चलायमान बनाये रखने में सहायक होती हैं। किसी के साथ संवाद आरम्भ होने पर उसे एक स्तर पर जाने दें। संवाद को आरम्भ से ही उच्च स्तर का होने की अपेक्षा न रखें। लोगों को अपने बारे में बोलने दें जिससे सामने वाला सहज महसूस करे। लोगों को उनके बारे में पूछकर उत्तेजित करें जैसे आप कहाँ के हो? हमारे मौसम के बारें आपके क्या विचार हैं? इत्यादि। लोगों को ऐसे प्रश्न पूछें जिनमें उनकी रुचि हो। अपने बारे में केवल तब बोलें जब आपको इसके लिए आमंत्रित किया गया हो एवं ऐसा कहा गया हो। हमेशा खुशियों भरी बातें करें, कभी भी अपने आप को दयनीय स्थिति में दिखाने वाली बातें न करें। जब आपके दिल में कोई बात चुभ रही हो अथवा बूरी लग रही हो तो बैठकर उसे कागज पर लिखें और फिर कागज को जला दें, इससे जरूर आराम मिलेगा। ऐसी चुभन वाली बातों को दूसरों पर न उडेलें। लोगों को चिढ़ाने अथवा उनपर व्यंग्यात्मक होने के प्रलोभन से बचें।

पुस्तक का आठवाँ अध्याय सुनने पर केन्द्रित है। सुनना आपको चालाक बनाता है। यदि आप लोगों को सुनते हो तो वो आपको यह बताना चाहेंगे कि वो क्या चाहते हैं। कई बार आवश्यकता से अधिक बोलना हमें औरों से अलग कर देता है। सुनने से आत्मचेतना पर काबू प्राप्त होता है। आपको यह ज्ञात होना चाहिए कि लोग क्या चाहते हैं; उनकी आवश्यकता क्या है; और इसके लिए प्रभावी कदम क्या होंगे। सुनने की कला का अभ्यास करें: 
  1. जो व्यक्ति बात कर रहा है, उसकी तरफ देखें,
  2. बोलने वाले के हर संवाद पर उचित अभिव्यक्ति प्रदर्शित करें जिससे यह प्रतीत हो कि आप बहुत ध्यान से सुन रहे हैं
  3.  बोलने वाले की तरफ झुककर बैठें
  4. प्रश्न पूछें
  5. बीच में न रोकें और और जानकारी प्राप्त करने के तरीके से आगे के प्रश्न रखें
  6. बोलने वाले के विषय से जुड़े रहें और
  7. अपने बिन्दु को आगे बढ़ाने के लिए बोलने वाले के शब्दों को काम में लें।

पुस्तक का नौंवा अध्याय लोगों को अपने विचारों से सहमत करने से सम्बंधित है। इसके अनुसार लोगों के एकदम खराब विचारों पर उन्हें सीधे न टोकें क्योंकि ऐस करने पर वो आपके विचारों के लिए अपने दरवाजे हमेशा के लिए बन्द कर देंगे। अपने विचार दूसरों से मनवाने के लिए उनके अवचेतन मन को जगाना होता है जिसके आगे उनका अहंकार द्वारपाल की भूमिका में रहता है। लोगों से वेबजह की बहस न करें और इससे बचने के लिए जहाँ सुलभ न लगे वहाँ अपने कान बन्द कर लें क्योंकि कोई हथोड़ा लेकर आपके पास नहीं आया है। बहस जीतने के लिए आप इन नियमों का पालन कर सकते हैं:
  1. दूसरों को उनका विचार पूरी तरह रखने दें
  2. उत्तर देने से पहले रूकें और प्रश्न पूछने वाले के हावभाव को समझने का प्रयास करें
  3. हमेशा सौ प्रतिशत जीत का हठ न करें और यदि सामने वाले के पास कोई अच्छा तर्क है तो उसकी सराहना करें
  4. अपनी स्थिति को सटीकता के साथ आराम से प्रस्तुत करें
  5. तीसरे पक्ष का सहारा लें जिसमें आप अन्य व्यक्तियों अथवा प्रकाशनों को सन्दर्भित कर सकते हैं और
  6. अन्य लोगों को अपना चेहरा (कीमत) बचाने का स्थान दें।

पुस्तक का दसवां अध्याय प्रशंसा पर आधारित है। लोगों को उनके छोटे-छोटे कामों के लिए भी धन्यवाद दें और यह अपेक्षा न रखें कि कुछ बड़ा करने पर ही प्रशंसा की जायेगी। हर दिन लोगों की प्रशंसा करें। दयालुता के साथ उदारता भी प्रदर्शित करें। किसी को धन्यवाद ज्ञापित करने के कुछ नियम इस प्रकार हैं:
  1. धन्यवाद वास्तविक होना चाहिए।
  2. स्पष्ट रूप से बोलें, मन में अथवा अस्पष्ट न रहें
  3. लोगों को नाम से धन्यवाद दें
  4. जब धन्यवाद ज्ञापित करें तब लोगों की ओर देखें
  5. जिस कार्य के लिए धन्यवाद ज्ञापित कर रहे हैं उसको इंगित करें और
  6. लोगों को उस समय भी धन्यवाद बोलें जब वो इसकी बिलकुल अपेक्षा नहीं करते हों। प्रतिदिन कम से कम पाँच बार लोगों को धन्यवाद ज्ञापित करते हुये अपने मन को खुश और शान्त पाने का प्रयास करें।

पुस्तक के अन्तिम अध्याय अर्थात् ग्याहरवें अध्याय में लोगों की आलोचना के बारे में कहा गया है। इसमें यह स्पष्ट है कि लोगों की आलोचना अपने अहंकार के लिए न करें और इसके लिए आवश्यक है कि आपको आवश्यक होने पर ही आलोचना करनी है जिसमें कुछ बातों को ध्यान में रखना चाहिए:
  1. आलोचना पूर्ण रूप से गोपनीयता के साथ करनी चाहिए
  2. आलोचना को भी दयालु शब्दों के साथ और प्रशंसनीय भाव में करनी चाहिये
  3. आलोचना को कभी व्यक्तिगत रूप में न करें; कार्य की आलोचना करें, व्यक्ति की नहीं
  4. जब आप किसी को उसकी गलती से अवगत करवा रहे हो तो साथ में यह भी बतावो कि सही क्या है
  5. सहयोग के लिए पूछें, इसकी मांग न करें
  6. किसी गलती के लिए एक बार ही कहें, दूसरी बार कहना अनावश्यक है एवं तीसरी बार नुकताचीनी में आ जाता है और
  7. हमेशा दोस्ताना माहौल में चर्चा का अन्त करें।

पुस्तक के अन्त में लेखक ने यह कहा कि वो लोगों के सम्बंधों को मधुर बनाने और उनके चेहरों पर खुशियाँ लाने के उद्देश्य को ध्यान में रखकर इसे लिख रहे थे और सबके लिए अच्छी शुभकमानओं के साथ अन्त किया है।