बुधवार, 4 जून 2025

रेत समाधि

गहरे नीले रंग का चित्र जिसमें कुछ तितलियाँ हैं, कुछ पौधे लगे गमले हैं, कुछ चिड़िया हैं और उन सभी के मध्य एक महिला छड़ी उठाये खड़ी है।
पुस्तक के कवर का चित्र

गीतांजलि श्री की पुस्तक रेत समाधि के अंग्रेज़ी अनुवाद टॉम्ब ऑफ़ सेंड (Tomb of Sand) को सन् 2022 का अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला। यह साहित्य के क्षेत्र में मिलने वाला एक बहुत बड़ा पुरस्कार है। हालांकि नोबेल पुरस्कार इससे कहीं उपर है लेकिन यह पहली हिन्दी पुस्तक है जिसको इतना बड़ा पुरस्कार मिला। मेरा मन भी यह खबर सुनकर पढ़ने का किया। मैंने पहले इसकी ऑनलाइन प्रतिलिपि खोजी लेकिन उसे पढ़ने में मजा नहीं आया। इसके बाद सन् 2022 के उत्तरार्द्ध में मैंने ऑनलाइन यह पुस्तक क्रय कर ली। मैंने जो पुस्तक क्रय की उसका कवर गहरे नीले रंग का है जिसमें कुछ तितलियाँ हैं, कुछ पौधे लगे गमले हैं, कुछ चिड़िया हैं और उन सभी के मध्य एक महिला छड़ी उठाये खड़ी है। पुस्तक के पिछले आवरण पर भी गहरा नीला रंग है वहाँ भी कुछ नक्काशी मिलती है। वहाँ गीतांजलि श्री का एक छोटा चित्र भी है और साथ में राजकमल प्रकाशन का नाम भी लिखा है। यहाँ आवरण परिकल्पना का श्रेय अनिल आहूजा को दिया गया है। सम्भवतः मेरे पास जो उपलब्ध सस्ती पुस्तक का आवरण पृष्ठ है।

लेखिका का नाम "गीतांजलि श्री" है जो मैंने पहले या तो कभी नहीं सुना था या फिर याद नहीं था और इसका कारण साहित्य की पुस्तकें बहुत कम पढ़ना हो सकता है। गीतांजलि श्री के नाम में "श्री" उनकी माँ का नाम है जो गितांजलि ने अपने उपनाम के रूप में स्वीकार किया। है। गीतांजलि श्री इतिहास की छात्रा रही हैं और वो विभिन्न हिन्दी लेखकों और कवियों को अपना आदर्श मानती हैं जिनमें कृष्णा सोबती, निर्मल वर्मा हैं। वो पाकिस्तान के प्रसिद्ध लेखक इंतज़ार हुसैन का भी नाम चर्चा में लाती हैं। श्रीलाल शुक्ल और विनोद कुमार शुक्ल की भी वो प्रशसंक हैं। इन सभी का नाम रेत समाधि पुस्तक में भी शामिल है। इस पुस्तक के बारे में ऑनलाइन कुछ समीक्षायें उपलब्ध हैं जिनमें से एक रवीश कुमार की समीक्षा भी शामिल है। जो भी हो, मैंने पुस्तक को पढ़ा है अतः मेरी अपनी समीक्षा है। इस पुस्तक का अंग्रेज़ी अनुवाद डेज़ी रॉकवेल ने किया। डेज़ी का एक हिन्दी साक्षात्कार मैंने बीबीसी हिन्दी पर सुना था जिसमें मैं सोचता रह गया कि डेज़ी रॉकवेल हिन्दी समझ लेती हैं और बोल भी लेती हैं। आवश्यक रूप से बिना हिन्दी की जानकारी के अच्छा अनुवाद सम्भव नहीं है। हालांकि उनका हिन्दी उच्चारण अंग्रेज़ी जैसा ही प्रतीत होता है।

मुझे पुस्तक में सबसे अच्छी बातें ये लगी की इसमें हिन्दी साहित्य के विभिन्न लेखकों का उल्लेख है। पुस्तक की भाषा आम बोलचाल की भाषा की तरह है जिसमें वाक्य कहीं भी पूरा हो जाता है और लम्बा भी हो जाता है। शब्द अलग-अलग रूप में बार-बार भी आते हैं और उनके प्रचलन और पुराने नाम भी साथ-साथ आते हैं। उदाहरण के लिए एलोवीरा भी लिखा है और अगले ही वाक्य में कह दिया कि इसे पहले में ग्वारपाठा कहते थे। मुझे तो आश्चर्य होता है कि उन्होंने घृतकुमारी शब्द क्यों नहीं डाअला। कहीं फल लिखा है तो फ्रुट भी मिल जायेगा। बोलते समय कई बार जैसे शब्दों और वाक्यों की आवृत्ति होती है, वो भी यहाँ देखने को मिलती है। पुस्तक में वो शब्द भी मिलते हैं जो राजस्थान और मध्य प्रदेश में स्थानीय तौर पर बोले जाते हैं लेकिन हिन्दी में कम ही देखने को मिलते हैं। यदि ढ़ंग से इस पुस्तक को पढ़ा जाये तो आपकी हिन्दी शब्दावली में बहुत विस्तार हो जायेगा। पुस्तक में सामान्य प्रचलन में आ गये अंग्रेज़ी शब्दों को भी देवनागरी में लिखा है। इसमें वो वृद्ध महिल के पोते को उसके आधुनिक नाम सिड के रूप में ही लिखा है जिसका सम्भावित सही नाम सिद्धार्थ या कुछ और है जो मुझे अब याद नहीं है। पुस्तक में कई जगह वो प्रचलित कहानियाँ भी हैं जो बचपन से मैंने सुनी हैं लेकिन उन्हें थोड़ा अलग रूप दे दिया है। उदाहरण के लिए परम्परा के नाम पर बंदरों पर प्रयोग की कथा सभी ने सुनी होगी जिसमें एक पिंजरे में बंद बंदरों से कुछ उपर केले रखे हैं लेकिन कोई भी बंदर केले लेने जाता है तो सभी पर गर्म पानी डाला जाता है। इस तरह उन्हें केलों से डरा दिया जाता है। इसके बाद एक-एक करके सभी बंदर बदल दिये जाते हैं लेकिन केलों की तरफ कोई बंदर नहीं जाता। उनपर गर्म पानी गिरना भी बंद हो चुका है लेकिन उनके लिए ये परम्परा का हिस्सा बन चुका है। लेकिन उपरोक्त पुस्तक में इसे एक छोटी चिड़िया की कहानी बना दी गयी है जिसमें वो एक शिकारी पर भरोसा करती है और उछलती रहती है लेकिन ज्यों ही शिकारी उसका शिकार करता है, चिड़िया के लिए मनुष्यों से डरना एक परम्परा बन गयी। भले ही अधिकतर मनुष्य चिड़िया के साथ बुरा व्यवहार नहीं करते। हालांकि पुस्तक के कुछ शब्द मैं समझ नहीं पाया क्योंकि वो मेरे लिए नये हैं और मैंने उन्हें किसी शब्दकोश में खोजकर समझना नहीं चाहा।

मैंने पुस्तक को सन् 2023 में कभी पढ़ना आरम्भ कर दिया था। सोचा था कि कभी यात्रा के दौरान पढ़ुँगा लेकिन मुझे मजा नहीं आ रहा था। इसका एक मुख्य कारण ध्यान से नहीं पढ़ना था। मैं जब भी पुस्तक पढ़ने बैठता हूँ, मुझे कुछ ऐसा मिल जाता है जो मुझे मेरे बचपन, गाँव और नौकरी की याद दिला देता है। उसके बाद मैं पुस्तक के कुछ पृष्ठ तो पढ़ लेता हूँ लेकिन पुस्तक के बाहर निकल जाता हूँ। इसका कारण बहुत वर्षों बाद हिन्दी पुस्तक पढ़ना भी एक कारण है। इससे पहले मैंने मोहन राकेश का नाटक "आषाढ़ का एक दिन" था जो सन् 2021 में मैंने एक दिन बैठे-बैठे पढ़ लिया था। उस दिन मैं मेरे किसी प्रिय के मकान पर था और वहाँ ही वो नाटक मुझे मिला था। लेकिन वो नाटक था जिसमें हर एक दृश्य को पूरी तरह उकेरा गया था लेकिन इस पुस्तक में कहानी थी, उसकी पृष्ठभूमि भी थी लेकिन पिछे का दृश्य स्वयं को बनाना था। यह उपन्यास है न कि नाटक। उपन्यास का अर्थ ही यह है कि यहाँ एक मुख्य कहानी होगी, उसके साथ बहुत अन्य कहानियाँ होंगी, कुछ आरम्भ होंगी और कुछ का अंत होता है, कुछ वापस निकल आती हैं तो कुछ सदा के लिए रुक जाती हैं। इस तरह मैंने इसे पढ़ने में निरंतरता नहीं रखी। मैंने फ़रवरी 2025 तक लगभग आधी पुस्तक को पढ़ लिया जो मेरी पढ़ने की धीमी गति को दिखाने के लिए स्पष्ट था। इसी समय मैं हिन्दी साहित्य से जुड़े कुछ लोगों के साथ चर्चा की जिसमें तिवारी जी और उनके मित्र शामिल हैं। उन्होंने मुझे बताया कि यदि पुस्तक को पढ़ने में मजा नहीं आ रहा तो मुझे छोड़ देना चाहिए। लेकिन मैं ऐसे तो नहीं छोड़ सकता था अतः मैने जल्दी से पुस्तक को पूरा करने का निर्णय लिया हालांकि फिर भी असफल ही रहा। इसी बीच अंग्रेज़ी में लिखी दो छोटी पुस्तकें पूर्ण कर ली। मई 2025 के अंतिम रविवार को 40 किलोमीटर दूर एक मित्र ने अपने घर बुलाया था। रास्ते में रेलगाड़ी से यात्रा करनी थी और इसमें एक अन्य मित्र भी साथ में था। हालांकि आज की यात्रा में मैंने बातें करने के स्थान पर पुस्तक पढ़ना उचित समझा और सम्बंधित मित्र ने भी इसमें किसी तरह की नाराजगी व्यक्त नहीं की। रास्ते में मैंने उसे भी कुछ भाग पढ़ाये। यहाँ एक पात्र का नाम भी उस मित्र के नाम वाला था। हालांकि वो पात्र उस बुजुर्ग महिला की बेटी के प्रेमी/पति का नाम है। इस यात्रा के दौरान मैंने पुस्तक के करीब 30 पृष्ठ पढ़ डाले और यहाँ से पढ़ने का मजा ही बदल गया। मैंने आगे पुस्तक को मई माह में ही पूर्ण करने का सोचा लेकिन समय की व्यस्तता ने ऐसा नहीं होने दिया। आखिर आज मैंने पुस्तक को पूरा कर लिया और यह समीक्षा लिखना आरम्भ कर दिया है।

पुस्तक में मुख्यतः तीन भाग हैं और चौथा छोटा सा भाग भी है। पीठ नामक पहले अनुभाग में हर कहानी या किस्से की शुरूआत चार पतियों के एक चित्र से होती है। धूप नामक दूसरे भाग में हर किस्से कहानी की शुरूआत में एक चिड़िया/कौवा बना हुआ है। हद-सरहद नामक तीसरे अनुभाग में हर किस्से की शुरुआत एक पहाड़ी के चित्र से होती है। अंत में उपसंहार लिखा है जो कहानी पूरी होने के बाद के लोगों के बुढ़े होने की है।

पहले भाग में एक बुजुर्ग महिला का परिचय होता है जो अपने बिस्तर पर चिपकी रहती है। उसके घर में उसका ध्यान रखते हैं, लेकिन ये बुजुर्ग महिला केवल अपने में खोई है। कहानी इसी महिला के ईर्द्ध-गिर्द्ध घुमती है। पात्रों से परिचय होता है जो महिला के इधर-उधर घुमते हैं, बातें करते हैं और ध्यान रखते हैं। लेकिन कहानी तो यहाँ अलग ही थी, महिला एकदिन गायब हो जाती है और सभी सोचते रह जाते हैं कि सबके बीच से महिला कहाँ गायब हो गयी? ध्यान कैसे नहीं रखा गया? सभी आनन-फानन में बुजुर्ग महिला को खोजने लगते हैं। यह बुजुर्ग महिला विधवा है और जब से विधवा हुई है तब से वो कुछ अलग ही रूप में खो गयी है। किसी ने सोचा भी नहीं था कि जो दूसरों के सहारे से बिस्तर छोड़ पाती थी वो ऐसे कहाँ गुम हो गयी। हालांकि बहुत खोजने पर वो बहुत दूर नगर में कहीं मिलती है। उसे अस्पताल भी पहुँचाते हैं और समस्या नहीं होने पर कहानी आगे बढ़ती है।

दूसरे भाग में मुख्यतः महिला को उसकी बेटी अपने घर लेकर चली जाती है और वहाँ अलग ही माहौल है। यहाँ कई कहानियाँ चलती हैं। बुजुर्ग महिला भी खूब खुलकर अपने आप को सम्भालती है। यहाँ रोज़ी कहाँ से आ जाती है यह तो मैं भूल गया लेकिन रोज़ी कहानी में बहुत बड़ी पात्र बन जाती है। बेटी अपनी बुजुर्ग माँ को घर में हर तरह से सुख-सुविधा देने का प्रयास करती है और उसमें स्वयं का भी पूरा ध्यान नहीं रख पाती है। जबकि माँ (बुजुर्ग महिला) अपने आप को यहाँ आज़ाद करती रहती है। यहाँ पर कौवों के एक सम्मेलन का चित्रण भी आता है जो मनुष्यों द्वारा किये जा रहे बड़े सम्मेलनों पर कटाक्ष की तरह लगा। कहानी यहाँ अच्छे से बढ़ रही होती है लेकिन रोज़ी को जब रज़ा दर्जी के रूप में बेटी देखती है और उसके अन्य बहुत रूप भी देखती है तो वो समझ ही नहीं पाती कि चल क्या रहा है? लेकिन माँ है कि उसे इससे फर्क नहीं पड़ रहा कि वो रोज़ी है या रज़ा टेलर या कोई और। वो सभी तरह से खुश है। गज़ब बदलाव रज़ा उर्फ़ रोज़ी की मौत हो जाती है और बुजुर्ग महिला पुनः ऐसे चुप हो जाती है जैसे सबकुछ खत्म हो गया। आखिर बेटी के विभिन्न प्रयासों के बाद माँ अपने आप को वापस वर्तमान में लाती है। एक चिकित्स्कीय समस्या दिखाती है जिसका चिकित्सकों से इलाज करवाया जाता है लेकिन यहाँ पर बुजुर्ग महिला अपनी वो मांग रख देती है जो किसी ने सोचा भी नहीं था। यह था सरहद पार जाना अर्थात् पाकिस्तान जाना। बेटी समझती है कि रोज़ी की याद में ऐसा कर रही है अतः कुछ दिन नाटक कर लेते हैं, वैसे भी वीज़ा तो मिलेगा नहीं।

तीसरा भाग सरहद आरम्भ हो जाता है। पासपोर्ट के साथ माँ पाकिस्तान चली जाती है वीज़ा के बिना ही। बेटी को भी साथ ले जाती है। यहाँ कहानी उसके बचपन की आ जाती है जिसमें रोज़ी के रूप में वो छोटी बच्ची भी है। माँ की वो कहानी भी जो उसने भारत के विभाजन के कारण सही थी। विभाजन एक काल्पनिक रेखा है जिसको माँ नहीं मानती है। बेटी पहले समझती है कि माँ को ये सबकुछ रोज़ी ने रटाया था लेकिन माँ को सबकुछ इतना अधिक याद है कि रोज़ी इतना कुछ नहीं सिखा सकती। अंत में बुजुर्ग महिला अपने अंत की तैयारी करती है जिसमें वो गोली लगने पर भी उल्टी नहीं गिरना चाहती और ऐसा ही करती है। उसका प्रेमी ही शायद गोली चलाता है लेकिन मानता नहीं है। साथ में कौवे की प्रेमकहानी भी जोड़ी है जो धर्म के अनुसार यहाँ अलग पंछी तीतर से जोड़ी गयी है। तीतर भी मर जाता है लेकिन कौवा उसे भी बुजुर्ग महिला के साथ जोड़ता है। यहाँ सरहद पार बेटी को भी अपना प्रेमी याद आता है। वो भी कैद में परेशान होती है और हर वो प्यारी बात याद करती है जिसे पिछले कुछ समय से वो भूल ही गयी थी। यहाँ तो मुझे कहानी इतनी मजेदार लगने लग गयी थी कि पुस्तक पूरी पढ़ने का हमेशा मेरा मन करने लगता है और मैं मोबाइल में रील देखने के स्थान पर आजकल पुस्तक पढ़ रहा हूँ। मैं जब पुस्तक पढ़ता हूँ तब न ही मोबाइल की आवाज अच्छी लगती है और न ही किसी का फोन आना। हालांकि कुछ मजबूरियों के चलते अन्य स्थानों पर भी समय देना आवश्यक है अन्यथा मुझे लगता है कि पुस्तक मई माह में पूरी हो गई होती।

उपसंहार में कुछ वर्ष बाद की बात है जिसमें न माँ है और न ही बेटी। उसमें हैं बड़े (बुजुर्ग महिला का बड़ा बेटा) उसकी पत्नी, और पौते-पौतियाँ, बहुयें आदि। आयु बढ़ने के साथ उनके भी आगे बढ़ते किस्से।

पुस्तक के आवरण पृष्ठ के पिछले भाग पर लिखे शब्दों का मर्म पुस्तक पढ़ने के बाद ही अच्छे से समझ में आता है। ये पंक्तियाँ भी मैं यहाँ लिख रहा हूँ:

अस्सी की होने चली दादी ने विधवा होकर परिवार से पीठ पर खटिया पकड़ ली। परिवार उसे वापस अपने बीच खींचने में लगा। प्रेम, वैर, आपसी नोकझोंक में खदबदाता संयुक्त परिवार। दादी बज़िद कि अब नहीं उठूँगी।

फिर इन्हीं शब्दों को ध्वनि बदलकर हो जाती है अब तो नई ही उठूँगी। दादी उठती है। बिलकुल नई। नया बचपन, नई जवानी, सामाजिक वर्जनाओं-निषेधों से मुक्त, नए रिश्तों और नए तेवरों में पूर्ण स्वच्छन्द।

कथा लेखन की एक नई छ्टा है इस उपन्यास में। इसकी कथा, इसका कालक्रम, इसकी संवेदना, इसका कहन, सब अपने निराले अन्दाज़ में चलते हैं। हमारी चिर-अरिचित हदों-सरहदों को नकारते लाँघते। जाना-पहचाना भी बिलकुल अनोखा और नया है यहाँ। इसका संसार परिचित भी और जादूई भी, दोनों के अन्तर को मिटाता। काल भी यहाँ अपनी निरन्तरता में आता है। हर होना विगत के होनों को समेटे रहता है, और हर क्षण सुषुप्त सदियाँ। मसलन, वाघा बार्डर पर हर शाम होनेवाले आक्रामक हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी राष्ट्रवदी प्रदर्शन में ध्वनित होते हैं 'क़त्लेआम के माज़ी से लौटे स्वर', और संयुक्त परिवार के रोज़मर्रा में सिमटे रहते हैं काल के लम्बे साए।

और सरहदें भी हैं जिन्हें लाँघकर यह कृति अनूठी बन जाती है, जैसे स्त्री और पुरुष, युवक और बूढ़ा, तन व मन, प्यार और द्वेष, सोना और जागना, संयुक्त और एकल परिवार, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान, मानव और अन्य जीव-जन्तु (अकारण नहीं कि यह कहानी कई बार तितली या कौवे या तीतर या सड़क या पुश्तैनी दरवाज़े की आवाज़ में बयान होती है) या गद्य और काव्य : 'धम्म से आँसूगिरते हैं जैसे पत्थर। बरसात की बूँद।'

समय मिलने पर इस पुस्तक का अंग्रेज़ी संस्करण भी पढ़ना चाहूँगा जिससे यह समझ सकूँ कि अनुवाद कैसे किया जाता है और एक अच्छा अनुवाद कैसे मूल अनुवाद से समानता और भिन्नता रख सकता है।

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