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ऐसी वैसी औरत का मुखपृष्ठ |
मैंने इस पुस्तक के विषय में पहले नहीं सुना था लेकिन पिछले कुछ माह से बार-बार गुप्ता जी इस पुस्तक समलैंगिकों की बात पर सन्दर्भित किया करते थे। उनके अनुसार पुस्तक में कई कहानियों में से एक समलैंगिक महिलाओं की कहानी भी है और उन्हें वो कहानी केवल लेखिका की मनगढ़ँत कहानी लगी, अतः उन्होंने लेखिका से पुष्टि के लिए फोन पर बात की थी। 25 जनवरी 2023 को मुझे खोजते हुये इसकी पीडीएफ़ फाइल मिल गयी तो सोचा पढ़ ही लूँ। मिलते ही मैंने पहली कहानी पढ़ डाली और उसके बाद इसकी समिक्षा लिखना आरम्भ कर रहा हूँ।
लेखिका ने कहानियाँ लिखने से पहले अपनी दो बातें रखी हैं। उन बातों के अनुसार लेखिका को अपने परिवेश की कहानी अथवा लोगों के अनुभव अथवा स्वयं के अनुभवों से घुटन होने लग गयी थी। लेखिका ऐसा अनुभव कर रही थी कि ये सबकुछ समाज के सामने आना चाहिए और उन्होंने ये पुस्तक लिखकर अपनी उस घुटन को दूर किया।
कहानी शुरू होने से पहले लेखिका ने अपने मन के भावों को एक लघु कविता में लिखा है जिससे स्पष्ट होता है कि ये कहानियाँ उस परिवेश से हैं जिसमें महिला को पानी की तरह होती है जिसमें मिला दो उसी तरह की हो जाती है लेकिन महिला को समाज में उसे उस रस्सी की तरह काम में लिया जाता है जिसको जहाँ चाहे उपयोग कर लिया जाता है और जब चाहे तब उसी अवस्था में उसे फैंक दिया जाता है। लेखिका अपनी पुस्तक को शायद सभी महिलाओं को समर्पित करने के स्थान पर उन महिलाओं को सम्बोधित करना चाहा है जिनको समाज ने अलग-थलग करने का काम किया है।
पुस्तक में कुल दस कहानियाँ हैं जिनके शीर्षक (1) मालिन भौजी, (2) छोड़ी हुई औरत, (3) प्लेटफार्म नंबर दो, (4) रूम नंबर 'फ़िफ़्टी', (5) धूल-माटी-सी ज़िंदगी, (6) गुनहगार कौन, (7) सत्तरवें साल की उड़ान, (8) एक रात की बात, (9) उसकी वापसी का दिन और (10) भँवर हैं। मैं हर कहानी की समीक्षा अलग-अलग लिखना पसन्द करूँगा।
मालिन भौजी
मैंने कहानी पढ़ना आरम्भ करने से पहले सोचा था कि भाभी और देवर के रिश्ते पर होगी लेकिन यह अलग ही कहानी थी। इसमें अधेड़ आयु की एक उस महिला के बारे में लिखा गया है जिसके पति के निधन के पश्चात् समाज में त्याग कर दिया जाता है। मैं इस कहानी से स्वयं को पूरी तरह नहीं जोड़ पाया क्योंकि मैं जिस समाज में पला बढ़ा हूँ वहाँ पर बच्चा पैदा होने से पहले सामान्यतः महिलाओं के विधवा होने पर उनका या तो दुसरी बार विवाह कर दिया जाता है या फिर नाता प्रथा से उन्हें एक बन्धन में बांध दिया जाता है। समस्या सामान्यतः बच्चों की माँ बनने के बाद आती है और वो भी उस समय जब बच्चे थोड़े बड़े हो जायें। लेकिन इस कहानी के अनुसार एक महिला को विधवा होने पर ससुराल और मायके दोनों तरफ से निकाल दिया जात है। वो ससुराल की सम्पत्ति में कचहरी के माध्यम से अपना हिस्सा लेती है और इसमें सहयोग करने वाला व्यक्ति ही आगे उसके जीवन में एक स्थायी सहारा बनता है। कहानी उस किरायेदार ने कही है जो उस महिला के घर पर किरायेदार है और आयु में काफी छोटा है। एक नौकरी करता है और उसी के कारण वो इधर रहता है। कहानी की सुन्दरता यह है कि महिला थोड़ी पढ़ी-लिखी है और आज भी पढ़ने लिखने का शौक रखती है। ये महिला समाज के तानों और बातों पर ध्यान नहीं देती है और अपने आप को हर परिस्थिति में सम्भालकर रखती है। मैंने बहुत महिलाओं में कठोरता देखी है लेकिन वो उनके बच्चों और परिवार के समर्थन में ही देखी है लेकिन इस कहानी की नायिका के तो बच्चा और परिवार है ही नहीं, अतः यह इस कहानी की भिन्नता है।
छोड़ी हुई औरत
यह रज्जो नामक एक ऐसी परित्यक्ता की कहानी है जिसको छोड़ी हुई औरत क्यों कहा जाये, यह समझना ही मुझे थोड़ा मुश्किल लगा लेकिन बाद में ध्यान आया कि ससुराल से छोड़ दिया गया है। यह उस औरत की कहानी है जिसकी अपनी एक प्रेम कहानी है लेकिन उस कहानी को बिगाड़ने वाले उसके बड़े भाई हैं। वो बिना माँ-बाप की युवती उस समय असहाय होती है जब उसके भाई अपने अनुसार एक अच्छे घर में उसकी शादी करते हैं लेकिन शादी में इतनी जल्दबाजी कर दी की दुल्हे के बारे में कुछ भी जानना उचित नहीं समझा और उसी का परिणाम था कि वो विवाह के एक वर्ष बाद छोड़ी हुई औरत बन गयी। वो अपनी ज़िन्दगी को कैसे करके आगे निकाल ही रही थी कि उसके सबसे छोटे भाई की शादी होती है और उसमें गाँव से महिलाओं को भी बारात में जाने की छूट मिलती है लेकिन इसमें वो परित्यक्ता शामिल नहीं थी। इसका परिणाम शायद उसे उसका प्यार मिल जाये, यह हो सकता है क्योंकि कहानी का अन्त मुझे समझ में नहीं आया। सम्भव है वो अन्त एक सपना था या सच्चाई, क्योंकि ऐसा वास्तविकता में मैंने कभी नहीं देखा। कहानी को उस महिला के शब्दों में लिखा गया है जो रज्जो के पड़ोस में जन्मी है और उससे उम्र में छः वर्ष छोटी है लेकिन बचपन में उसी से सबकुछ सीखा था अतः उसके साथ अथाह प्यार भी है। सामाजिक बंधनों के कारण वो उसके साथ नहीं है लेकिन अब अपने चचेरे भाई के बेटे अर्थात् भतीजे के विवाह का बहाना बनाकर रज्जो से मिलने आती है। ग्रामीण परिवेश ऐसी कमजोर औरतें सामान्यतः समाज में बहुतायत में देखने को मिल जाती हैं लेकिन प्रेमकहानी वाली बात शायद मैं कभी प्रेक्षित नहीं कर पाया। साथ में अपने गाँव की बोली-भाषा से वो प्यारा अनुभव इसमें दिखाया गया है वो ऐसे लगता है जैसे मेरा अपना ही अनुभव हो।
प्लेटफार्म नंबर दो
यह कहानी इरम नामक उस लड़की की है जो प्लेटफॉर्म नंबर दो पर भीख मांगकर अपना गुजारा करती है और वहाँ तक पहुँचने के लिए वो अपने घर से भागकर आती है क्योंकि उसके बाप की मार से उसकी माँ मर चुकी है और उसका बाप अब उसे और उसकी बहन को भी पीटता है। यहाँ भीख मांगना भी आसान नहीं था क्योंकि सामने वाले हर व्यक्ति का एक अलग व्यवहार होता है। इसके अतिरिक्त भीख का भी व्यवसाय होता है जिसमें सबके क्षेत्र विभाजित होते हैं। लेकिन कहानी इसके आगे की है जब एक गार्ड की नौकरी करने वाली महिला इस भीख मांगने वाली बच्ची को खाना खिलाती है और धीरे-धीरे करके अपना गुलाम बनाकर वेश्यावृत्ति में धकेल देती है। वेश्यावृत्ति का भी यह स्तर की पूरे शारीरिक विकास से पहले ही उसे तीन मर्दों के साथ भेज दिया जाता है जो उसके साथ बहुत बुरा व्यवहार करते हैं और बेहोशी की हालत में फेंक जाते हैं। इरम को अस्पताल पहुँचाया जाता है लेकिन वहाँ भी पूरी निगरानी है जिसमें उसका पूरा ध्यान रखा जाता है कि वो कहीं भाग न जाये। इरम की हमराज पूजा है और उसकी कहानी भी वैसी ही है, अन्तर केवल इतना है कि पूजा घर से भागकर नहीं आयी थी बल्कि उसके बाप ने बेच दिया था। अस्पताल में दोनों ने जहर पीकर अपने जीवन को खत्म कर लिया। यह कहानी यदि मैंने आज से दस वर्ष पहले पढ़ी होती तो शायद बकवास लगती लेकिन अब मैंने स्वयं ऐसे किस्से देखे हैं और बच्चे और उनका ऐसा अपहरण देखा है। मैंने वेश्यावृत्ति नहीं देखी लेकिन उसकी इतनी कल्पना करना मेरे लिए मुश्किल नहीं है अतः यह एक सामाजिक समस्या को इंगित करती कहानी प्रतीत होती है।
रूम नंबर 'फ़िफ़्टी'
यह कहानी मुझे बहुत सुन्दर लगी। इसमें हॉस्टक के कमरा संख्या 50 में रहने वाली शैली नामक लड़की की कहानी है जो समलैंगिक है। सामान्यतः बहुत लोग समलैंगिकता को केवल दिमाग का वहम और बिमारी के रूप में देखते हैं लेकिन यह ठीक उसी तरह है जैसे अन्य लोगों में अथवा अन्य तरह के प्रेम संबंधों में। कहानी को अरीन नामक एक मुस्लिम युवती के शब्दों में लिखा गया है जो अपने हॉस्टल के जीवन में रही सहेली के बारे में लिख रही है। उसकी सहेली को समलैंगिक कहकर उसकी समलैंगिक साथी ने ही बदनाम कर रखा था। यह केवल अल्पसंख्यकता को निर्दिष्ट करता है। सामान्यतः लोग बहुसंख्यक को सही मान लेते हैं जबकि सत्य अथवा असत्य का अल्पसंख्यक अथवा बहुसंख्यक से कोई लेना देना नहीं होता। विश्व में अथवा विश्व के किसी भी भाग में समलैंगिक लोग अल्पसंख्यक ही मिलेंगे क्योंकि बहुसंख्यक तो इतरलिंगी ही मिलेंगे। यदि आपको यह कहानी अच्छी न लगे तो कृपया अपने विचारों को खोलने का प्रयास करें न की कहानी को झूठलाने का।
धूल-माटी-सी ज़िंदगी
धूल-माटी से ही समझ में आता है कि मिट्टी से भरी हुई ज़िन्दगी। यह एक गरीब घर की कहानी ही हो सकती थी। यह एक किसान या मजदूर की कहानी हो सकती थी लेकिन यहाँ पर यह एक गरीब महिला की कहानी है जिसके एक छोटी सी बच्ची है और वो उसके अपने से बांधकर रखती है। इसमें यह भी दिखाया गया है कि बड़े घरों के लोगों में भावनायें भले ही हों, उनके लिए गरीबी का जीवन समझना मुश्किल होता है। इसके अतिरिक्त गरीबी के जीवन में कैसे गुजारा होता है यह भी दिखाया है। इसमें वो गरीब महिला अपने काम कैसे पूरा करती है और कैसे अपने घर को सम्भालती है, यह दिखाया गया है। इसमें वैसे तो सबकुछ अच्छे से लिखा गया है लेकिन एक प्रश्न अभी भी अधूरा रह गया कि उस खंडहर में वो गरीब महिला क्यों गयी थी। महिला की मौत हो गयी, यह ही इस कहानी का एक सच हो सकता था अन्यथा शायद कहानी अधूरी रह जाती। कहानी का अन्त भले ही दुखद है लेकिन कहानी एकदम सटीक और सत्य जैसी लगती है।
गुनहगार कौन
कहानी गुनाहगार की तलाश में है लेकिन मुझे तो इसमें कोई गुनाह दिखाई नहीं देता। शिक्षा व्यवस्था को थोड़ा गुनाहगार कह सकता हूँ जिसने लोगों को सच्चाई समझने का मौका ही नहीं दिया। यह कहानी सना नामक उस महिला कि है जो एक लड़के का सपना देखती है और उसकी उसी से शादी हो जाती है लेकिन फिर उसे ज्ञात होता है कि उसके सपनों का राजकुमार तो पुरुष ही नहीं है। इसके बाद वो शारीरिक सुख के चक्कर में किसी और के प्यार में पड़ती है जो उसे दलालों के हाथ बेचकर वेश्यावृत्ति में धकेल देता है। इसके बाद उसकी मुलाकात उसके पति से होती है जो घर छोड़कर भाग गया था और उससे हिम्मत भी मिलती है। वो सात वर्ष बाद अपने भाई के घर जाती है और सोचती है कि वहाँ कुछ सहारा मिलेगा लेकिन वहाँ भाई उसे पहले ही त्याग चुका है। अन्त में जब आत्महत्या की ओर जा ही रही थी कि उसका पति उसे पुनः सम्भालने लग जाता है। कहानी बहुत ही मार्मिक और सही रहा पर है, केवल इसका अन्त जैसे खुशियों की तरफ बढ़ता हुआ दिखाया है, काश वैसा ही अन्त हर किसी वास्तविक जीवन का भी हो।
सत्तरवें साल की उड़ान
यह काकू नामक उस बुढ़िया की कहानी है जिसने पूरी ज़िन्दगी में कभी धन की कमी नहीं देखी लेकिन पति का सुख नहीं देख पायी और पति से जो दो बच्चे थे, वो भी अपने विवाह के बाद अपने-अपने परिवारों में व्यस्त हो गये जैसे माँ को भूल ही गये हों। उसका पति वर्ष में एक महिने के लिए उससे मिलने आता था और इसबार वो आखिरी बार आया था जिसके बाद काकू ने पति से तलाक लेने का निर्णय ले लिया। यह कहानी काकू की एक किरायेदार के शब्दों में है और शुरू वहाँ से होती है जहाँ एक नये मॉल में काकू को वो पासपोर्ट ऑफ़िस लाती है। इसे अब के और तब के संघर्ष के रूप में देखा जा सकता है और नगरीय जीवन की एक कहानी को बयान करती है। ग्रामीण क्षेत्र इतना बुरा नहीं होता जहाँ गरीबी हो सकती है लेकिन अकेलापन इस स्तर का नहीं होता। लेकिन नगरीय जीवन चाहे धन की कमी न रहने दे लेकिन बाकी जीवन से सब रंग छीन लेता है।
एक रात की बात
यह मुझे एक प्रेमकहानी लगी जो नगरों में ही सम्भव है। यहाँ अपने पड़ोस की अपंग लड़की से बचपन से प्यार की गाथा एक लड़के बातों में लिखी गयी है। यह मेरे लिए थोड़ी फ़िल्मी है क्योंकि मैंने ऐसी प्रेमकहानियाँ मेरे वास्तविक जीवन में नहीं देखी और न ही ऐसी कहानियों की कभी कल्पना कर पाया। हालांकि इस कहानी में उस अपंग लड़की ज़ूबी के बचपन, किशोरावस्था और यौवन को बखुबी दिखाने का प्रयास किया गया है जिसका यौवन ही जीवन का अन्तिम पड़ाव है और वो मरने से पहले अपने स्त्रित्व के सुख को पाना चाहती है।
उसकी वापसी का दिन
लगभग दस वर्ष पुरानी बात है जब मैं कोलकाता से मुम्बई आ रहा था। रेलगाड़ी का वातानुकुलित डिब्बा था और पुणे में एक व्यक्ति मेरे पास आकर बैठा था जो मूलतः राजस्थान का था। उसने बताया था कि उसके एक छोटी सी बिटिया है। अब याद नहीं है लेकिन या तो डेढ या तीन वर्ष उम्र रही होगी उस बच्ची की लेकिन उसको छोड़कर उसकी माँ किसी और के साथ चली गयी है। मुझे उस व्यक्ति की बात विश्वसनीय नहीं लग रही थी लेकिन जिस तरिके से वो कह रहा था और उसके चेहरे पर जो भाव तो उससे वो सच लग रहा था। उसके बाद मैंने ऐसे अनगिनत किस्से सुने और देखे हैं और पिछले कुछ वर्षों में तो अपने घर में भी देख लिया। यह कहानी भी मुझे मेरे घर से जुड़ी हुई प्रतीत होती है और ऐसी महिलाओं पर गुस्सा भी आता है। क्या जरूरत होती है उन्हें बच्चों को जन्म देने की जब उन्हें उनका भी आगे कोई खयाल नहीं होता। यदि लेखिका की सोच दिखावटी नारीवाद से भरपूर होती तो शायद इस कहानी को भी वो अलग रंग रूप दे सकती थी और कह सकती थी कि एक बार प्रेमी के साथ क्या देखा उस आदमी ने अपनी पत्नी को घर से निकाल दिया। लेकिन लेखिका ने बहुत ही सुन्दर चित्रण किया है जो लाजवाब है। यह कहानी उन दो बहनों की और उनकी माँ की है जो अपनी दोनों बेटियों के भविष्य को दाँव पर लगाकर अपने प्रेमी संग रंगरलियाँ मनाती है जबकि उन बच्चियों का पिता उसकी सब मांग पूरी करता है। राज खुलने पर वो अपने प्रेमी संग भाग भी जाती है लेकिन जब बुढ़ापे में एक दुर्घटना में प्रेमी का निधन हो जाता है तब वो पुनः उस घर में आश्रय पाने की इच्छा रखती है जबकि अब तक बड़ी बेटी के विवाह की तैयारियाँ चल रही हैं और छोटी भी अब काफी बड़ी हो गयी है। माँ की ममता के किस्से बहुत देखने को मिल जाते हैं लेकिन ऐसी माँ भी इसी समाज में देखने को मिलती हैं।
भँवर
यह एक ऐसे जाल की कहानी है जिसमें नगरीय लड़कियाँ ही नहीं बल्कि गाँवों की लड़कियाँ भी फंस जाती हैं। मुझे भी पहले ऐसी बातों पर भरोसा नहीं होता था लेकिन जब कई युवतियों से उनके साथ अपनों द्वारा हुये शोषण की कहानियाँ सुनी तो विश्वास होने लग गया। इसमें शिखा नामक लड़की अपने विवाह से ठीक पहले अपने उस जीवन को याद कर रही है जब वो अपनी किशोरावस्था में अपने ही मोसी के बेटे की शिकार होती है। वो कैसे उसे अपने भँवर में फंसाकर शोषण करता है और वो अपनी पीड़ा किसी के साथ साझा नहीं कर पाती। यहाँ कहानी का एक पक्ष यह भी दिखाया है कि यह सब करने वाला राहुल नगरीय अथवा विदेशी परम्परा का मुरीद है और सबको उसी अंदाज़ में अपना बनाने की कला रखता है। गाँवों में भी ऐसे कुछ लोग मिल जाते हैं और उनका भी इरादा शायद ऐसा कुछ होता होगा। कहानी यह भी मार्मिक है और आस-पास के परिवेश से ही उठायी हुई लग रही है।
लेखिका अंकिता जैन ने इस पुस्तक में विभिन्न समाज की ही कहानियों को अपने अन्दाज़ में पिरोया है और यह मेरे लिए भी एक अलग अनुभव की तरह रहा है।